Monday, July 18, 2022
एक असली शेर से मुलाकात
एक असली शेर से मुलाकात
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हमारे देश में मुख्यत: दो तरह के 'शेर' पाए जाते हैं, एक सिट्टी-पिट्टी गुम करने वाले और दूसरे शायरी में 'अर्ज़' किए जाने वाले। पहले को देखकर मुंह से 'आह' निकल जाती है और दूसरे को सुनकर 'वाह'! दूसरे वाले सिर्फ़ मुशायरों-महफिलों या शायरों के दीवानों में मिलते हैं लेकिन पहले वाले नोट-सिक्के, बच्चों की किताबों, सरकारी इमारतों-दस्तावेजों से लेकर चिड़ियाघर तक में उपलब्ध होते हैं। इन्हें जंगल का राजा भी कहा जाता है। लेकिन जबसे जंगल कट गए हैं, राजा साहब के रुतबे और संख्या, दोनों में कमी आ गई है। बेचारे प्रीविपर्स के सहारे ज़ू में ज़िंदगी बिता रहे हैं।
पहले ये सर्कस में भी पाए जाते थे किंतु पशुओं के 'मानवाधिकार' का मुद्दा उठने के बाद से सर्कस में इनका भूगोल, इतिहास हो गया। वैसे तो अब सर्कस भी इतिहास बनते जा रहे हैं। मांएं अक्सर अपने बच्चों को सुलाने के लिए शेर के नाम का प्रयोग करती हैं। बच्चा जब तक मोबाइल गेम वाले शेर से परिचित नहीं होता, सो भी जाता है। उसके बाद ख़ुद शेर हो जाता है और मां को सुला देता है। शेर हमारा राष्ट्रीय प्रतीक भी है। इस प्रकार हम देखते हैं कि शेर के कई उपयोग हैं। ये तो अच्छा है कि ये सारी बातें शेर को नहीं पता वरना कबका रॉयल्टी की मांग कर चुका होता।
आजकल इसको मुद्दा बनाकर भी उपयोग किया जा रहा है। मज़े की बात तो ये है कि शेर को मुद्दा बनाने वालों में कुछ गीदड़, रंगे सियार, गिरगिट और आंसू बहाने वाले घड़ियाल भी शामिल हैं। देश के नए संसद भवन के शीर्ष पर स्थापित किए जाने वाले शेरों की मुख मुद्रा कुछ लोगों को पसंद नहीं आ रही है। उनका मानना है कि ये शेर आक्रामक हैं, जबकि मूल कृति सारनाथ वाले शेर सौम्य हैं। अजीब तर्क है। शेर मूलतः एक हिंसक जानवर है। नव रस की दृष्टि से, उस पर स्वाभाविक रूप से रौद्र, वीर, भयानक और वीभत्स रस शोभा देते हैं। यदि कोई उसमें श्रृंगार, हास्य, करुण, अद्भुत और शांत रस देखना चाहे तो उसकी बुद्धि पर 'तरस' खाने का दिल करता है।
ख़ैर, मामले को तूल पकड़ता देखकर आखिर हमारे भीतर का भी शेर...मतलब पत्रकार जाग गया और हम अपना बीमा कराने के उपरांत जा पहुंचे शेर की मांद में। पहुंच तो गए किंतु उसे देखते ही हाथों से तोते उड़ गए...सारी हिम्मत काफूर हो गई। हमें घबराया देखकर राष्ट्रीय पशु, राष्ट्र भाषा में बोला, "तुम्हारा परिचय?"
"हम आपके साढू भाई।"
"क्या मतलब?" वह बोला।
"मतलब शादी से पहले हम भी शेर थे," हमने जवाब दिया।
ये सुनकर वह इतनी विकराल हंसी हंसा कि हम सहम गए। आगे बोला, "डरो मत! चले आओ...सावन शुरू हो चुका है इसलिए एक महीने के लिए मैंने नॉन वेज छोड़ दिया है।"
"नॉन वेज छोड़ दिया या माहौल देखकर डर गए?"
"डरता तो मैं किसी के बाप से भी नहीं," शेर दहाड़ा फिर अचानक धीमे स्वर में बोला, "पत्नी को छोड़कर...मुद्दे पर आओ।"
"मुद्दे की ही बात कर रहे हैं। कुछ लोगों को आपकी भाव भंगिमा पर आपत्ति है। उनका कहना है कि पहले आप सौम्य और शांत थे...अब दहाड़ रहे हैं?"
"नासमझ हैं वे, जो ऐसा कहते हैं। तुमने अक्षय कुमार के मुंह से वो कहावत तो सुनी ही होगी कि शेर जब दो कदम पीछे लेता है तो लंबी छलांग लगाने के लिए...न कि भागने के लिए। उस सारनाथ वाली 'सौम्यता' को तुम पीछे वाले दो कदम समझो। अब 'स्टार्टअप नाथ' वाला, दहाड़ने का दौर है। पिछली सरकार में तुमने 'सिंह' को भीगी बिल्ली बनकर 'म्याऊं-म्याऊं' करते देखा होगा...अब वो दिन लद गए जब खलील खां फाख्ता उड़ाया करते थे। ये नए ज़माने का भारत है... मैं ऑनलाइन और ऑफलाइन, दोनों तरह से दहाड़ सकता हूं...लेकिन महाराजा दुष्यंत और उनके पुत्र भरत के समय के कुछ संस्कार अभी शेष हैं इसलिए केवल प्रतीक रूप में दहाड़ा हूं।"
शेर अपनी रौ में बोले जा रहा था। ऐसा लगता था उसे काफ़ी दिन बाद बोलने का मौका मिला है या शायद भाभी जी...मतलब शेरनी उस वक्त मांद में नहीं थीं। शेर जी वाकई शेर बन गए थे। आगे बोले, "मेरी जिस पुरानी सौम्य फ़ोटो की चर्चा हो रही है, वह उस ज़माने की है, जब न टेलीफोन होता था...न कैमरा। इंसान ही नहीं, जानवर भी
सीधे साधे होते थे। मूर्तिकार या चित्रकार जिस मुद्रा में मॉडल को बैठा देते, बैठे रहते थे। अब मोबाइल का दौर है। सेल्फी का ज़माना है और तुम जानते हो कि उल्टा-सीधा मुंह बनाए बिना सेल्फी अच्छी नहीं आती। मैंने भी सेल्फी ली और लोगों ने मुख मुद्रा को लेकर बखेड़ा खड़ा कर दिया।"
हमने विषय बदलने की गरज से अगला सवाल किया, "श्रीलंका में रहने वाला आपका कज़न आजकल बड़ी मुसीबत में है...आप उसकी कुछ मदद क्यों नहीं करते?"
"भारत सरकार कर तो रही है मदद। वैसे भी ड्रेगन से दोस्ती का यह नतीजा तो होना ही था...होइहि सोइ जो राम रचि राखा, को करि तर्क बढ़ावै साखा।" कहकर शेर ने तो चुप्पी साध ली किंतु गुफ़ा के मुहाने से ज़ोरदार दहाड़ सुनाई दी। दहाड़ श्रीमती शेर की थी। उन्होंने हमारा गिरेबान पकड़कर पूरा जबड़ा खोला ही था कि आंख खुल गई। सामने लाल-लाल आंखें लिए हमारी पंजीकृत शेरनी ... अर्थात पत्नी खड़ी थीं और हम औकात में आ चुके थे।
- कमल किशोर सक्सेना
Sunday, July 10, 2022
सीनियर सिटीजन प्ले ग्रुप स्कूल
सीनियर सिटीजन प्लेग्रुप स्कूल
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खुल गया! खुल गया!! खुल गया!!! आपके शहर लखनऊ में बुज़ुर्गों का माकूल ठिकाना...बोले तो...स्कूल खुल गया। आपके दांत गिर चुके हों। नकली डेंचर लगा हो। पैर चलने को उधार मांगते हों। सांस फूलती हो। डिसेंट डिसेंट्री के मरीज़ हों या धैर्य धराऊ कब्ज़ के। बायपास सर्जरी शुदा हों या डायलिसिस के शौकीन। ख़िज़ाब, बालों से या हड्डी, खाल से पनाह मांग रही हो। हाथों पर फ़ालिज का फ़ौरी हमला हो या पांव कब्र में लटकने के मुन्तज़िर। तो भी न घबराने की ज़रूरत है, न झिझकने की। ज़िंदगी चुक चुकी हो तो भी ये मौक़ा मत चूकें। नए-नए बुड्ढे हों या सेकंड हैंड जवान। पेंशन पाते हों या लड़का-बहू की लात या दोनों। सबके लिए समान अवसर। वृद्धों और वृद्धियों में कोई भेदभाव नहीं। को-एजुकेशन की व्यवस्था।
हमारे शहर में जब से ये स्कूल खुला, वरिष्ठ नागरिकों में खुशी की लहर दौड़ गई। ख़िज़ां को फटकने की दावत देते चेहरों पर बहार आ गई। अपने ज़माने के नामी-गिरामी बैक बेंचर, स्कूल में कुकड़ूं कूं की अलाप लगाने वाले चिकन और चिकन गुनिया, हर क्लास में कई-कई साल टिककर ठोस पढ़ाई करने वाले अनुभवी फेलियरों की तो लॉटरी लग गई। बंटी की दादी हों या पिंकू के दादा, सबका मनपसंद शगल बन गया-सीनियर सिटीजन प्ले ग्रुप स्कूल।
ये स्कूल सुबह बुज़ुर्गों द्वारा ऊपर वाले को याद करने के साथ शुरू होता है ताकि ऊपर वाला उन्हें याद न कर ले। फिर 'गया' एक-एक बुड्ढे-बुड्ढी को हाथ पकड़कर उनकी क्लास में पहुंचाता है। पहले इस काम के लिए 'आया' को रखा गया था। लेकिन स्कूल खुलने के दो दिन बाद ही, विधुर होने की हैट्रिक जड़ चुके एक बुज़ुर्गवार 'आया' को लेकर 'गया' हो गए। उसके बाद से 'आया' के काम के लिए 'गया' को रख लिया गया।
क्लास का सीन ये होता है कि ज़मीन पर रखी कुर्सी-मेज़ों, गद्दों और गाव-तकियों पर बुज़ुर्ग वार अपने-अपने गिलास-कटोरे और चुसनी के साथ रखे हैं। करीब-करीब हर छात्र-छात्रा के कान और नाक चश्मे की गिरफ्त में हैं। टीचर ब्लैक बोर्ड पर एक गोला बनाकर पूछते हैं, "ये क्या है?" खैनी मलता एक छात्र जवाब देता है, "संडास"! दूसरा जवाब, हिलती गर्दन वाले सिर में जड़े मुंह से आता है, "मैनहोल"! ज़बरदस्त नज़ले से परेशान तीसरा मुंह नाक का तोहफ़ा ज़ुबान से रोकने की कोशिश करते हुए बोल पड़ता है, "उल्टा तवा!"
इसके बाद कोई सवाल-जवाब नहीं होता। अब बाबा लोगों का बीपी और दादी लोगों की शुगर चेक करने का टाइम है। आया की जगह रखा गया 'गया' इसे अंजाम देता है। फिर वह सारे स्टूडेंट्स के कान पर जाकर घंटा बजाता है क्योंकि कुछ ऊंचा सुनते हैं, कुछ बिल्कुल नहीं और कुछ के कान रिपेयरिंग और ओवरहालिंग मांगते हैं। पीरियड ओवर। अगला पीरियड पीटी का है। सबको फिर उंगली या हाथ पकड़कर मैदान में लाया जाता है। बाबा आरामदेव के कज़िन विरामदेव ये पीरियड लेते हैं। सब छात्र-छात्राएं ज़मीन पर बैठकर अनुलोम-विलोम, कपालभांति और सूर्य नमस्कार करते हैं। सूर्य नमस्कार करने में कुछ छात्रों के हाथ-पैर आपस में उलझ जाते हैं। उन्हें सुलझाने के लिए डॉक्टर झटका को डिस्पेंसरी सहित बुला लिया जाता है।
एक दिन स्कूल में बदन पर अचकन-चूड़ीदार पैजामा, सिर पर दुपल्ली टोपी, पैरों में कामदार जूतियों में पैबस्त, हाथों में छड़ी लिए लहराते-झूमते, 70 के फेंटे में फिंटे हुए एक बड़े मियां नमूदार हुए। उनके साथ चार कारिंदे भी थे। एक के हाथ में हुक्का, दूसरे के पानदान और तीसरे के उगालदान था। चौथा आगे-आगे रास्ते में झाड़ू देता चल रहा था। ये पूरा काफ़िला बिना किसी की इजाज़त लिए प्रिंसिपल के कमरे में घुस गया। बड़े मियां ने अपनी तशरीफ़ कुर्सी पर टिकाने के बाद एक कारिंदे को इशारा किया।
"हुज़ूर अवध के उजड़े नवाबी ख़ानदान से ताल्लुक रखते हैं," कारिंदे ने बड़े मियां की शान में कसीदे पढ़ते हुए आगे कहा, "आपके मदरसे में तालीम लेने की गरज़ से दाखिले के ख्वाहिशमंद हैं। ये देखिए हुज़ूर का नवाबी सर्टिफिकेट," कहकर कारिंदे ने दो डंडियों के सहारे शनील के कपड़े में लिपटा एक कागज़ प्रिंसिपल साहब के आगे रख दिया।
प्रिंसिपल ने उसे उठाकर पढ़ा, फिर एक नज़र नवाब साहब को देखा और बोले, "ये तो नूर मंज़िल का प्रिस्क्रिप्शन है...क्या नवाब साहब का दौलतखाना वहीं है या वहां इलाज फ़रमां हैं?"
"नहीं जनाब, हुज़ूर अब बिल्कुल ठीक हो चुके हैं। आपको यक़ीन न हो तो उन डॉक्टर साहब से दरयाफ्त कर लें, जिन्होंने हुज़ूर का इलाज किया था और इन्हें ठीक करने के बाद अब अपना इलाज करवा रहे हैं।"
"उसकी ज़रूरत नहीं है," प्रिंसिपल ने दुपल्ली टोपी के नीचे टंके चेहरे को ग़ौर से देखते हुए आगे कहा, "मैं नवाब साहब को पहचान रहा हूं...नूर मंज़िल में ये मेरे रूम मेट हुआ करते थे। इनके आ जाने से हमारे स्कूल की बिल्डिंग में शौहरत के चार चांदों समेत और भी सितारे जड़ जाएंगे।"
इसके बाद नवाब साहब का दाखिला हो गया। बड़े मियां यानी नवाब साहब कुर्सी से उठते हुए सिर्फ़ इतना बोले, "हम कल से आपकी अंजुमन की रौनक बढ़ाएंगे...क्लास में चार अदद स्टूलों का भी इंतज़ाम रखिएगा।"
"स्टूल किसलिए?"
"हमारे कारिंदों के लिए।"
"कारिंदो का क्लास में क्या काम?"
"एक हमारा हुक्का सुलगाएगा। दूसरा, टीचर के सवाल समझकर हमें समझाएगा। तीसरा, होमवर्क न करने पर हमारे एवज में मुर्गा बनेगा और चौथा रिज़र्व में पड़ा रहेगा।"
नवाब साहब का जवाब सुनकर प्रिंसिपल साहब बेहोश हो गए। उन्हें फिर से नूर मंज़िल में भर्ती करवा दिया गया। ताज़ा जानकारी मिलने तक स्कूल बंद था। जैसे ही कुछ नया पता लगेगा, आपको इत्तिला दी जाएगी।
- कमल किशोर सक्सेना
एक्शन रिप्ले
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वैधानिक चेतावनी : हमारी यह बकवास पढ़ने से पहले दो सौ ग्राम बादाम, सौ ग्राम पिस्ता, डेढ़ सौ ग्राम काजू और पाव भर देसी घी का सेवन कर लें। संभव हो तो अमिताभ बच्चन से पूछकर किसी चिल्ड तेल की सिर में मालिश भी करवा लें। कमज़ोर दिल और हाज़मे वाले न ही पढ़ें तो बेहतर। फिर भी ज़िद हो तो अपने रिस्क पर पढ़ें। आपके मन में ये स्वाभाविक सवाल उठ सकता है कि जिस चीज़ के पढ़ने के पहले इतनी गिज़ा ज़रूरी हो, उसे हमने क्या खाकर लिखा होगा। तो बताते चलें कि हम खाते-पीते, पहनते-ओढ़ते-बिछाते घर से हैं। इसलिए हमारी रूहानी, जिस्मानी, रूमानी क्षमताओं पर शक न करें।
अब आइए हमारी विशुद्ध मौलिक बकवास पर।
आपने प्रकाश का नाम तो सुना ही होगा। न न...हम प्रकाश झा, प्रकाश फर्नीचर, प्रकाश हेयर कटिंग सैलून या प्रकाश कुल्फी वाले की बात नहीं कर रहे। हम बात कर रहे हैं उस प्रकाश की, जो सूरज निकलने, एलईडी बल्ब जलाने या विज्ञान नामक विषय में पाया जाता है। इसकी गति होती है 3 लाख किलोमीटर प्रति सेकंड। यानी बहुतै तेज़। दूसरा होता है प्रकाश वर्ष। ये प्रकाश का बाप नहीं बल्कि पड़ दादा के ऊपर कई पड़ दादा होता है। ये विज्ञान के साथ-साथ अंतरिक्ष से भी संबंध रखता है। ये दूरी नापने की इकाई है, जैसे गज-फ़िट या मीटर-किलोमीटर। यानी, दूरी नापने के जब सारे पैमाने ख़त्म हो जाते हैं, सस्ते-मद्दे कंप्यूटर-लैपटॉप भी टें बोल जाते हैं, तब दूरियों के पड़ दादा आज़म यानी प्रकाश वर्ष जन्म लेते हैं।
एक प्रकाश वर्ष अर्थात वो दूरी जो प्रकाश एक वर्ष में तय करता है। और, प्रकाश की गति आपको पता ही है तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकंड। अब एक प्रकाश वर्ष में वह कितनी दूर पहुंचेगा, ये हिसाब लगाने के लिए थोड़ा काजू-बादाम और चबा लें। फिर हमारी बात ध्यान से समझिए-हमारी पृथ्वी का सारा जीवन हर सेकंड लाइव चल रहा है। इसे अंतरिक्ष से बखूबी देखा जा सकता है कि हम इस वक्त क्या कर रहे हैं। अब थोड़ा पीछे यानी अतीत में चलिए। मान लीजिए दो वर्ष पीछे। तो दो वर्ष पहले हम जो कर चुके थे, उसकी किरणें या फ़िल्म अंतरिक्ष में उसी समय पहुंच गई होंगी। राइट। लेकिन अंतरिक्ष तो अनंत है। उसका न ओर है न छोर। इसलिए वे अतीत की किरणें अब भी कहीं यात्रा कर रही होंगी। हम किसी तकनीक की मदद से, उन किरणों यानी प्रकाश से भी बहुत तेज़ गति से चलकर यदि उन्हें पकड़ लें तो आज की तारीख में देख सकते हैं कि दो साल पहले हमने क्या किया था।
हो सकता है ये सारी बातें आपके सिर के ऊपर से प्रकाश की गति से भी तेज़ रफ़्तार से गुज़र रही हों तो आधा पाव चिलगोज़ा और खा लीजिए। और, दिल थाम कर सुनिए आगे की वो दास्तान, जो आपको हॉलीवुड की फिल्मों की याद दिला देगी।
अब आइए मुख्य बकवास पर।
उस विशेष तकनीक के ज़रिए हमारा इरादा पांच हज़ार प्रकाश वर्ष पहले से अपनी यात्रा शुरू करने का था। किंतु फिर ध्यान आया कि उसी समय महाभारत का युद्ध हुआ था। हालांकि मन में लालच भी था कि प्रभु श्रीकृष्ण के दर्शन करते चलें। लेकिन उससे ज़्यादा डर था कि प्रयोग के चक्कर में कहीं कौरवों या पांडवों में से किसी की तलवार के शिकार हो गए तो भविष्य में होने वाले हमारे बच्चे पैदा होने से पहले ही अनाथ हो जाएंगे। लिहाज़ा हमने अपना टारगेट सिकोड़ना शुरू किया। रास्ते में मौर्य, गुप्त और हर्षवर्धन वंश से लेकर सम्राट अशोक तक के युग पड़े किंतु यहां भी वही तीर, तलवार और भाले आदि के ख़तरे थे। इसलिए रुके नहीं। पीछे आते-आते पंद्रहवीं शताब्दी आ गई। वहां मुग़ल साम्राज्य की नींव खुदने जा रही थी। हम फ़ौरन से भी पहले वहां से निकल लिए। कौन बवाल में पड़े। हमें पता था कि आगे हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट शुरू हो जाएगा। वहां से हम इतनी तेज़ भागे कि ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश हुकूमत जैसे स्टेशनों पर भी नहीं रुके और हमारा ब्रेक सीधे आज़ाद और लोकतांत्रिक भारत में लगा। अब हम पैदा होने वाले थे।
पैदा होने के बाद जो पहली क्लिप आप लोगों से शेयर कर रहे हैं, उसमें हम स्कूल जाने लगे हैं। तीसरी कक्षा में हैं। लड़कियां भी साथ में पढ़ती हैं लेकिन तब हमें को-एजूकेशन का मतलब नहीं पता था। सिर्फ़ ये पता था कि क्लास के कुछ बच्चों के टिफ़िन में रोज़ मिठाई क्यों होती है और हमारे में वही परांठा-सब्ज़ी। अब हम छठे दर्जे में हैं। टीचर के हाथ का झन्नाटेदार झापड़ खाकर अभी-अभी स्कूल से लौटे हैं। दहाड़ें मारकर रो रहे हैं क्योंकि माता-पिता के अलावा किसी का यह पहला तमाचा था। आठवें दर्जे तक ये सोचकर खुश होते रहे कि नौंवी से केवल पांच विषय पढ़ने होंगे। पांच विषय यानी सिर्फ़ पांच किताबें। लेकिन बुरा हो लॉर्ड मैकाले का, जिनकी शिक्षा व्यवस्था में किताबों के ढेर में हम ऐसा दबे कि स्नातक करने के बाद ही सांस ले सके।
अब हमारी नौकरी एक अख़बार में लग चुकी है। हमारे संपादक के सिर पर बाल नहीं हैं। लोग कहते हैं कि वह बहुत विद्वान हैं। इस बात से प्रभावित होकर हम भी सैलून में जाकर गंजे हो जाते हैं। विद्वता का तो पता नहीं, हां सहकर्मी ज़रूर पूछ रहे हैं कि पिताजी कब मरे। जब ड्यूटी करके घर लौटे तो सिर में बालों के अंकुर फूट रहे थे। लेकिन पिताजी ने जूता लेकर वे भी साफ़ कर दिए। अब माताजी को अपने लिए एक कुलीन और सुशील बहू की ज़रूरत है। उसकी खोज में हमारे सारे रिश्तेदारों से लेकर पड़ोसी-परिचित तक सब लगे हैं। हम भी बाज़ार, दफ़्तर, सिनेमा आते-जाते रास्ते में दिखने वाली हर लड़की में संभावना खोज रहे हैं।
एक चेहरे में संभावना कुछ ज़्यादा नज़र आती है तो हम आगे बढ़ते हैं लेकिन ये क्या...! वह एक मुक्का हमारी पीठ पर जड़ती है। हम दर्द से कराह उठते हैं। मुंह से निकलता है, "बहन जी...हमारा अपराध क्या है? आपको बुरा लगा हो तो काजू-बादाम के पैसे ले लो। बच्चे की जान लोगी क्या...!" इसके साथ ही अचानक हमारी आंख खुल जाती है। सामने बेगम साक्षात चंडी का रूप धरे खड़ी हैं और धाराप्रवाह बोले जा रही हैं, "कल कितनी भांग खाकर आए थे...ये काजू, बादाम, चिलगोज़ा...प्रकाशवर्ष...सब क्या है? नींद में क्या-क्या बड़बड़ा रहे थे...कुछ होश है!"
अब हम वाकई होश में आ चुके थे।
- कमल किशोर सक्सेना
Saturday, July 9, 2022
मौत का फरमान
मौत का फ़रमान
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पहली बार हमें अपनी आंखों की काबिलियत पर शक़ हुआ। बचपन से हमें अपनी दोनों आंखों पर बहुत गुमान था। इसलिए नहीं कि वे आकार में बड़ी-बड़ी, बंटोला जैसी थीं। इसलिए भी नहीं कि कभी कहीं किसी से लड़ी नहीं, मतलब वर्जिन थीं। या, कि दोनों बराबर थीं, छोटी-बड़ी नहीं। वफ़ादार इतनी कि चश्मे की बैसाखी पकड़ने को तब तैयार हुईं, जब उन्हें एक-दूसरे को ही देखने में दिक्कत होने लगी। फिर इस कागज़ पर लिखी इबारत, जो हमारी आंखों को दिख रही थी, वह किसी और को क्यों नहीं दिखाई दे रही थी। और तो और, वो कागज़ भी किसी को नज़र नहीं आ रहा था। उस पर सिर्फ़ इतना लिखा था, "तुम्हारा समय पूरा हो चुका है। अब से ठीक 12 घंटे के बाद तुम्हारी दूसरे लोक की यात्रा शुरू होगी।"
ये हमारे लिए एक तरह से मौत का फ़रमान था, जो घर के बाहर वाले कमरे में दरवाज़े के पास पड़ा था। उसे शायद दहलीज़ के नीचे से किसी ने भीतर सरकाया था। पोस्टमैन की करतूत भी नहीं हो सकती क्योंकि पत्र किसी लिफाफे में नहीं था और उस पर डाकखाने की मुहर भी नहीं थी। वैसे भी आजकल ई-मेल और व्हाट्स एप के ज़माने में डाक से चिट्ठी कौन भेजता है। हैरत तो यह थी कि घर में वो चिट्ठी हमारे अलावा किसी ने नहीं देखी। जबकि, सुबह 6 बजे से वह दरवाज़ा कई बार खोला-बंद किया जा चुका था। सबसे पहले ग्वाला आया। नल का ताज़ा पानी दे गया। उसमें थोड़ा दूध भी था। फिर शास्त्र सम्मत अर्धांगिनी का दर्ज़ा प्राप्त महिला ने सब्ज़ी वाले से धनिया-मिर्चा लिया। नियमतः उसे साथ में सब्ज़ी भी देनी पड़ी। उसके बाद विधि सम्मत भाई ( ब्रदर इन लॉ ) मिठाई की दुकान से चाशनी ले आया। उसके साथ जलेबी भी प्राप्त हो गई। दोनों बेटे भी अपने दैनिक कार्यक्रम के निमित्त, जिम से अतिरिक्त कैलोरी जलाकर और उतने ही वज़न का पसीना शरीर पर लादकर, वापस आ चुके थे। किंतु इन सबकी टोटल चार जोड़ी आंखों में से एक की भी नज़र उस चिट्ठी पर नहीं पड़ी। हद तो यह थी कि हम हाथ में चिट्ठी लिए खड़े थे लेकिन फिर भी किसी को कुछ नहीं दिख रहा था।
उल्टे परिवार के लोग हमारा चेहरा देख रहे थे और इस बात पर एकमत होने का प्रयास कर रहे थे कि हमें सीधे नूर मंज़िल ( पागलखाना ) में भर्ती कराया जाए या पहले किसी अच्छे मनोचिकित्सक को दिखा लिया जाए। हम समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें? इस चिट्ठी को किसी की धमकी मानें या वाकई ऊपर वाले का फरमान। धमकी, हमें कौन देता। एक वही शास्त्र सम्मत वाली थीं, लेकिन वह मौखिक देती थीं। बचा ऊपर वाला तो हमें जहां तक याद पड़ता था, हमारे खानदान में दूर-दूर तक किसी को कोई ऐसा फ़रमान नहीं मिला। सबने बिना किसी नोटिस के ही दुनिया छोड़ी। हमें ऐसी स्थिति में घबराने का भी अनुभव नहीं था, फिर भी हिम्मत जुटा कर घबरा लिए। अपनी उन्हीं दुलारी आंखों को, अब हमारी फ़ोटो पर माला पड़ी नज़र आने लगी।
परिवार के लोगों से बहस करना हमने रिटायरमेंट के पहले ही छोड़ दिया था। वे भी हमको अधिकांश मामलों में रिटायर मानकर चलते थे। हमने वह चिट्ठी जेब में डाली और तीन-तीन फिट की जुड़वां टांगों पर, शेष ढाई फीट का जिस्म लादे, लंबे-लंबे डग भरते हुए, बचपन के एकमात्र जीवित दोस्त के पास पहुंच गए। उसे लगातार ज़िंदा रहने का 66 वर्ष का अनुभव था। इत्तफ़ाक से वह उस दिन भी ज़िंदा मिल गया। हमने उसे संक्षेप में सारी दास्तान सुनाई। जिसे सुनने के लिए उसे अपने एक कान से रुई निकालनी पड़ी। दूसरा कान मैल से जाम था। सारी बात सुनकर उसने अपनी दोनों आंखें बंद कर लीं और इस तरह गंभीरता से चिंतन करने लगा, जैसे देश की विदेश नीति में आमूल चूल परिवर्तन की दिशा में विचार कर रहा हो।
इस बीच उसके मुंह में मसाले की जुगाली चलती रही। करीब पांच मिनट बाद उसकी आंखों ने जीवित होने का अहसास दिलाया। साथ में मुंह की मांसपेशियों ने भी अपना जीवन प्रमाणपत्र पेश किया और माहौल के सन्नाटे को चीरते हुए जो दो शब्द हमारे कानों से टकराए, वे थे, "चिट्ठी दिखाओ।"
हमने जेब से चिट्ठी निकालकर उसके हाथ पर रख दी। मगर उसने हिकारत से वह हमें वापस करते हुए कहा, "यार सठियाये तो हम-तुम एक साथ थे। लेकिन लगता है तुमने कोई एक्स्ट्रा कोर्स भी कर लिया है। मैंने चिट्ठी मांगी और तुम रुमाल थमा रहे हो...वो भी नाक के आंसुओं में डूबा हुआ।"
उसकी बात से हम चौंके। इसका मतलब साफ़ था कि चिट्ठी उसे भी नहीं दिख रही थी। उधर वह अपनी भड़ास निकालने में लगा था। कह रहा था, "लखनऊ की गर्मी तुम्हारे दिमाग़ में चढ़ गई है। घर जाओ, आराम करो। दो सिल्ली बर्फ़ मैं भिजवा देता हूं...एक बिछा कर लेट जाना, दूसरी ओढ़ लेना।"
हमने अपने स्थाई कमीने दोस्त को खा जाने वाली नज़रों से देखा। लेकिन खाया नहीं क्योंकि उस दिन मंगलवार था और मंगल को हम नॉन वेज नहीं खाते। फिर हमने गूगल से ढूंढ-ढूंढकर चुनिंदा मौलिक लानतें उस पर भेजीं। इस बीच हम घबराहट की चरम सीमा के काफ़ी पास आ गए । डर था कि कहीं इसके बाद दूसरे लोक की सीमा न प्रारंभ हो जाए। ये विचार मन में आते ही वहां से रिवर्स गियर लगा कर भूतकाल हो गए।
इतनी देर में यह तो तय हो गया था कि उक्त चिट्ठी हमारे अलावा किसी को नहीं दिख रही है। हमने तसल्ली के लिए उस चिट्ठी को फिर अपनी आंखों के आगे कई एंगल से नचाया। वह कत्थक, भरत नाट्यम, कत्थकली, कुचीपुड़ी, मोहिनीअट्टम आदि विधाओं में खूब नाची। मगर हर स्टेप के साथ हमें संदेश देना नहीं भूली कि हमारे पास सिर्फ़ 12 घंटे का समय शेष है। चिट्ठी पर यह तहरीर पढ़ते ही हम पर घबराने का दूसरा दौरा पड़ा क्योंकि इस बीच एक घंटा हम बर्बाद कर चुके थे। अब सिर्फ़ 11 घंटे का समय बाक़ी था। उसके बाद....! उसके बाद हमारे नाम के आगे 'स्वर्गीय' लग जाएगा।
"और कहीं मरने के बाद नरक मिला तो?" दिल ने दिमाग़ के आगे शंका रखी।
"तो भी यहां किसको पता चलेगा...लिखा तो फिर भी स्वर्गीय ही जाएगा। आज तक किसी के नाम के पहले नारकीय लिखा देखा है!"
दिमाग़ की दलीलों के आगे दिल ने घुटने टेक दिए। जो होगा देखा जाएगा। हमने 'स्वर्ग' या 'नरक' के झगड़े में न पड़कर अपने बाक़ी बचे एक-एक मिनट का सदुपयोग करने का फ़ैसला किया। समय कम था और कामों की फेहरिस्त लंबी। हमने हिसाब लगाना शुरू किया। तमाम काम अधूरे पड़े थे। कुछ शुरू ही नहीं हुए थे। बचे हुए 11 घंटे में से एक घंटा यह सोचने में ही निकल गया कि हम कौन सा काम करें और कौन सा छोड़ें। फिर ये भी खयाल आया कि कहीं मरने के बाद भूत न बन जाएं। सुना था कि जिनके काम या हसरतें अधूरी रह जाती हैं, वे भूत बनकर मारे-मारे फिरते हैं।
इस विचार के उठते ही हम डर से कांपने लगे। फ़ौरन हनुमान चालीसा पढ़नी शुरू कर दी। डर कुछ कम हुआ तो हिम्मत बढ़ी। हनुमान चालीसा वाला नुस्खा तो कारगर था। लेकिन ये गारंटी नहीं थी कि मृत्योपरांत पढ़ने की परमिशन होगी...क्योंकि आज तक किसी भूत या आत्मा द्वारा हनुमान चालीसा के पाठ का ज़िक्र नहीं सुना। यही पता था कि उसे सुनकर भूत-प्रेत भाग जाते हैं। अजीब कश्मकश थी। हमें मरने का कोई तजुर्बा भी नहीं था और न कोई भूत-प्रेत हमारी फ्रेंड लिस्ट में था, जो शंका समाधान करता। हम पर तीसरा दौरा पड़ा। गनीमत रही कि दौरा घबराहट का था, दिल का नहीं...वरना डेडलाइन से पहले ही इस जहां से डेबिट होकर उस जहां में क्रेडिट हो चुके होते।
अब 8 घंटे बचे थे हमारे पास। वैसे तो 8 घंटे बहुत होते हैं। नौकरी में एक शिफ्ट की ड्यूटी ख़त्म हो जाती है लेकिन जब ज़िंदगी की शिफ्ट का सवाल हो तो बहुत कम मालूम पड़ते हैं। हमें लगा अगर अधूरे काम निपटाने लगे तो बचा हुआ सारा समय उसी में ख़त्म हो जाएगा और काम शायद फिर भी न निपटें। यह विचार आते ही हमने अधूरे कामों को गोली मारने की सोची। लेकिन अचानक खयाल आया कि यह तो हिंसा हो जाएगी और आख़िरी समय में हिंसा ठीक नहीं। यह सोच अधूरे कामों को भाड़ में जाने का रास्ता दिखा दिया, जो पुराने लखनऊ की तरफ़ जाता था।
अब दिल ने कहा कि चलते-चलते कुछ नेक काम कर लो। सुना है आख़िरी वक्त में की गई नेकी, पूरे जीवन की बदी पर भारी पड़ती है। यह विचार कर हम बैट्री रिक्शा में बैठकर गोमती के पास आ गए। आख़िर नेकी करने के बाद उसे दरिया में भी तो डालना होता है। दरिया की दशा बहुत ख़राब थी। उसमें प्लास्टिक, कचरे, मल-मूत्र के रूप में शहर वालों की नेकियां पहले से पटी पड़ी थीं। हम सोच में पड़ गए कि नेकी लाकर डालेंगे कहां। यहां तो जगह ही नहीं है।
इतनी देर में दो घंटे और कम हो गए। तभी दो सिपाही अपनी तरफ़ आते दिखे। हम आख़िरी समय में पुलिस की सूरत देखने से बचना चाहते थे लेकिन तब तक वे पास आ गए। एक डंडा फटकारता हुआ बोला, "हौ हौ...चचा यहां क्या कर रहे हो?"
"कुछ नहीं...बस ऐसे ही...नदी देखने आए थे।" हमने जवाब दिया।
"काहे... इत्ती उमर हो गई...कभी नदी नहीं देखी!" दूसरे सिपाही ने हमें घूरते हुए कहा। उसके हाथ का डंडा भी अंगड़ाई लेने लगा।
"हम सच कह रहे हैं...नदी ही देखने आए थे...देखिए कितनी गंदगी है।"
"हमें तो लगतो है... ई ससुर गंदगी बढ़ाने आये हैं। चचा तुम्हारा डिब्बा कहां है?"
"कैसा डिब्बा?" हमने घबराकर पूछा।
"सरकार सफ़ाई कराए-कराए परेशान है...स्वच्छ भारत मिशन चलाए है...घर-घर शौचालय बनवा रही है...और तुम साले ससुर के नाती चले आए गंदगी करने"।
एक सिपाही ज़मीन पर डंडा पटककर चिल्लाया तो दूसरा उसका साथ देते हुए बोला, "ले चलो साले को थाने...वहां इसे नदी नहीं समंदर दिखाएंगे।"
हम डर से थर-थर कांपने लगे। लगा शायद यमदूत पुलिस की वर्दी पहनकर हमें लेने आ गए। सिपाही हमें थाने ले जाने पर अड़े थे। उनके चंगुल से छूटना ज़रूरी था। अचानक हमें अपनी जेब में पड़ी उस चिट्ठी का ध्यान आया। हमने उसे निकालकर एक सिपाही के हाथ में रख दिया। उसने बुरा सा मुंह बनाते हुए कहा, "ख़ाली सौ का नोट। चचा कुछ तो लिहाज करो...हम दो लोग हैं...बस 50-50...इतना रेट मत गिराओ।"
अब चौंकने की हमारी बारी थी। मतलब वह चिट्ठी इन्हें सौ का नोट दिख रही है। खैर, इसके बाद वो नोट लेकर दोनों चले गए। हमने इत्मीनान की सांस ली। एक नेक काम तो संपन्न हुआ। घड़ी की सुइयां तेज़ी से भाग रही थीं। हमने सोचा एकाध नेक काम अपने परिवार वालों के लिए भी करते चलें। उन्हें अंजाम देने हम दूसरा टेंपो पकड़कर बैकुंठ धाम आ गए। वहां बड़ी भीड़ थी। चारों तरफ़ मुर्दे ही मुर्दे। हमें लगा यहां तो फुंकने में ही घंटों लग जाएंगे। कहो पुनर्जन्म हो जाए और लाश का नंबर न आए। बेटे और रिश्तेदार अलग कोसेंगे कि बुड्ढा कौन सी मनहूस घड़ी में मरा। ये विचार कर हमने अपने लिए सात मन लकड़ी फटाफट तुलवा कर किनारे रखवा दी और दुकानदार से कह दिया कि शाम को जब हम अर्थी पर आएं तो लड़कों को सप्रेम भेंट कर देना। अच्छा इंप्रेशन पड़ेगा।
लकड़ी वाला क्या सोच रहा होगा, इसकी परवाह किए बिना हम लपककर डेथ सर्टिफिकेट बनवाने जन्म-मृत्यु कार्यालय में घुस गए। वहां कर्मचारी बिना शव देखे सर्टिफिकेट बनाने को तैयार नहीं था। उसे पांच सौ रुपए घूस देकर बड़ी मुश्किल से यकीन दिलवा पाए कि हम ही हैं 'भावी स्वर्गीय!'
ये सब काम निपटाने में अंतिम समय करीब आ गया। आधा घंटा बचा तो हम ओला करके जल्दी से घर आ गए। किसी ने हम पर ध्यान नहीं दिया। हम ड्राइंग रूम में जमीन पर चादर बिछाकर लेट गए। सिरहाने गीता-रामायण रख ली। एक कंडा और दो अगरबत्ती भी जलाकर रख दीं। कोरम पूरा हो गया। अब सिर्फ़ हमें प्राण त्यागने थे। मगर असमंजस इस बात को लेकर था कि प्राण ख़ुद त्यागने होंगे या यमदूतों का इंतज़ार करना होगा। हमने इंतज़ार करने का निश्चय किया और आंखें बंद करके, मुंह में गोमती से लाया गंगाजल डालकर, 'राम नाम सत्य है' का जाप करने लगे। तभी यमदूत ने बुरी तरह झिंझोड़ा। आंखें खोलीं तो वही शास्त्र सम्मत अर्धांगिनी का दर्ज़ा प्राप्त खड़ी थीं। साथ-साथ चिल्ला भी रही थीं, "देखो अपने बाप की करतूत...पलंग के नीचे लेटे पता नहीं क्या-क्या बक रहे हैं। लाख कहा कि रात में गरिष्ठ खाना मत खाओ...लेकिन नहीं, करेंगे अपने मन की। कैसे-कैसे, उल्टे-सीधे सपने देखते हैं। अब तो इन्हें नूर मंज़िल जाकर जमा कर ही आओ।"
हम हतप्रभ से इधर उधर ताकने लगे। उधर बड़ा बेटा मोबाइल से नूर मंज़िल का नंबर डायल कर रहा था।
- कमल किशोर सक्सेना
Monday, May 9, 2022
एक छोटी सी लव स्टोरी
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मैं एक भूत हूं। भूत, भविष्य, वर्तमान वाला नहीं... मरने के बाद वाला। मरने के पहले जब मैं ज़िंदा था तो बाकायदा पैंसठ किलो का शरीर रखता था। उस शरीर में करीब 150 ग्राम का दिल। दिल में जान के अलावा तमाम अरमान, सुख - चैन और तमन्नाएं भी बसती थीं। एकदम हाउसफुल था। ऐसी खचाखच स्थिति में वह मेरे पड़ोस में रहने आ गई। उसे देखते ही पहला काम ये हुआ कि मेरे दिल से जान निकलकर उसमें ट्रांसफ़र हो गई, सुख - चैन बग़ावत कर बैठे, अरमानों की सुनामी आ गई। ये मेरा पहला प्यार था। तब मैं हाई स्कूल में पढ़ता था और वह आठवीं में। हम दोनों की शिक्षा भी नाबालिग थी और हम भी।
छह महीने मैं उसे बस देखता ही रहा। तब मुझे समझ में आया कि वह कहीं और देखती है। उसका कहीं और देखना आंखों के दोष के कारण नहीं, बल्कि इस कारण था कि उसकी दृष्टि, मुझे पारकर सामने रहने वाले एक और लड़के पर ठहरती थी। मेरी इकतरफ़ा प्रेम कहानी में पहली बार विलेन की एंट्री हुई। दिल ने भी पहली बार ईर्ष्या की भावना महसूस की। नतीजा, अगले दिन मैंने उस विलेन को बिना किसी कारण के पीट दिया। वह विज्ञान का विद्यार्थी था। उसने न्यूटन का तीसरा नियम पढ़ा था, अतः उसने प्रतिक्रिया में मुझे पीट दिया। उस ज़माने में मेरे आत्मसम्मान का जन्म नहीं हुआ था, फिर भी उसे ठेस लग गई।
उन्हीं दिनों मैंने कहीं पढ़ लिया कि मोहब्बत और जंग में सब जायज़ होता है। यहां मोहब्बत ( भले इकतरफ़ा ) भी थी और जंग भी, अतः मैं कुछ जायज़ करने का मौक़ा ढूंढने लगा। कहते हैं कि सच्चे इश्क़ में तमाम मुश्किलें आती हैं... इसलिए यहां भी आईं। मैं कुछ करने का मौक़ा ही ढूंढता रह गया और उसके पापा ने दूसरे मोहल्ले में मकान ढूंढ लिया। लेकिन, सच्चे आशिक़ की तरह मैंने हार नहीं मानी और अपने इश्क़ की गुमटी उसके स्कूल के बाहर डाल ली। रोज़ अपने स्कूल की जगह मैं उसके विद्यालय में हाज़िरी देने लगा। इस चक्कर में मेरी अटेंडेंस शॉर्ट हो गई और परीक्षा में बैठने से रोक दिया गया। मुझे परीक्षा न दे पाने से ज़्यादा दुख इस बात का था कि उसने अब तक एक बार भी मेरी ओर नज़र उठाकर देखा नहीं था। अपने घुटने की यादगार चोट के अलावा, अब मैंने इश्क़ की चोट भी महसूस की।
उन दिनों इश्क़ में चोट खाए लोग गांजा, चरस, शराब आदि पौष्टिक पदार्थों का सेवन करते थे, जिससे उनमें बड़े से बड़ा सदमा सहने की हिम्मत बनी रहती थी। अतः मैंने बिना समय गंवाए मोहल्ले की ' नशा भक्षण समिति ' की सदस्यता ग्रहण कर ली। वह समिति वास्तव में घायल और टूटे दिल वालों का नर्सिंग होम थी। कुछ सदस्य इश्क़ में पागल होकर समिति की शरण में आए थे, उनके लिए अलग विभाग था। कुछ आई सी यू में थे। समिति के अध्यक्ष को ख़ुद कई जगह से ठुकराए जाने का लंबा तजुर्बा हासिल था, इसलिए वह ड्रग्स लेते थे। मेरा केस अभी गंभीर नहीं हुआ था, लिहाज़ा मुझे दारू के तीन पैग का हल्का डोज़ देने के बाद लेटर - ओ - थेरोपी ( लव लेटर लिखने ) की सलाह दी गई। मैं देवदास पर नवीं बार फ़िल्म नहीं बनवाना चाहता था, अतः इस थेरोपी के लिए राज़ी हो गया।
मेरे अंदर लिखने - पढ़ने का इतना ही सलीका होता तो हाई स्कूल न पास कर लेता। लेटर लिखवाने के लिए मुझे दूसरे मोहल्ले के एक ' प्रेम पत्र विशेषज्ञ ' की सेवाएं लेनी पड़ीं क्योंकि अपने मोहल्ले में सब मेरे जैसे थे। उनके लिए भैंस और काले अक्षर में कोई भेद न था... गनीमत सिर्फ़ इतनी थी कि उन्होंने कभी काले अक्षर से दूध दुहने की कोशिश नहीं की। उन प्रेम पत्र विशेषज्ञ के पास इतना काम था कि अगले छह महीने तक समय नहीं था। ऐसा लग रहा था, जैसे उस दौर का हर व्यक्ति बस प्रेम करने का ही काम करता था, बाक़ी काम अमेरिका आदि देशों की मदद से होते थे। ख़ैर, छह महीने बाद अपने हिस्से का प्रेम पत्र लिखवाने के बाद जब मैं उसे देने गया तो पता चला कि वह स्कूल ही नहीं, शहर भी छोड़ गई।
इस झटके के बाद क़ायदे से मुझे संपूर्ण रूप से टूट जाना चाहिए था लेकिन ख़ाली मेरा दिल टूटा, जिसे मैंने फेविकोल से चिपकाकर काम चलाने लायक बना लिया। पत्र लिखवाने की फ़ीस तो बेकार गई ही, साथ ही उसे पाने की आख़िरी उम्मीद भी टूट गई। अब मेरे सामने दो रास्ते थे... आत्महत्या कर लूं या किसी का अपहरण कर उससे प्रेम करूं। लेकिन, प्रेम में हिंसा का कोई स्थान नहीं होता, ये सोच मैं जेब में पत्र डालकर, उसे देने योग्य चेहरे की खोज में जुट गया। समय बीतता गया। तब तक मैं हाई स्कूल में पांच बार फेल होकर मोहल्ले में नया रिकॉर्ड बना चुका था। इस बीच एक से नज़रें मिलीं भी, वह भी हाई स्कूल में तीन बार फेल हो चुकी थी। लेकिन उसे भी पत्र देने की नौबत नहीं आई क्योंकि वह और किसी सीनियर फेलियर की तलाश में थी।
इसके बाद उक्त प्रेम पत्र देने के लिए मैंने तीन प्रयास और किए। पहला प्रयास राशन की लाइन में किया। वह महिलाओं की लाइन में पीछे लगी थी। उसका साथ पाने को मैं अपनी लाइन में आगे से पीछे आ गया। लेकिन, मेरे आगे से हटते ही उसने अपने भाई को मेरे स्थान पर लगा दिया और ख़ुद घर चली गई। चिट्ठी जेब में ही पड़ी रह गई। दूसरी कोशिश तब की, जब घरवालों को पूरा विश्वास हो गया कि मैं इस जन्म में हाई स्कूल पास नहीं कर सकता। अंततः इसी क्लास में लगातार सात बार फेल होने के बाद पढ़ाई ने मुझे छोड़ दिया। तब पड़ोस के घर में बर्तन मांजने वाली को मैंने उक्त पत्र देने की कोशिश की। उसने अपने पति से शिकायत कर दी और मैं अपनी टांगों से हाथ धोते - धोते बचा। केवल पैर तुड़वाने के एग्रीमेंट के बाद मैंने प्रेम के पत्राचार पाठ्यक्रम से तौबा कर ली। पत्र को बक्से में रखकर मैं लगभग भूल गया।
तीन महीने बाद मैं फिर अपने पैरों पर खड़ा हो गया। इस बीच, साथ के सभी यार - दोस्त, विवाह और बच्चों को प्राप्त हो चुके थे। शुभचिंतकों ने सलाह दी कि शादी कर लो, प्रेम उसके बाद भी किया जा सकता है। मैं तैयार हो गया किंतु शहर में अब कोई शरीफ़ परिवार मुझे अपना दामाद बनाने को तैयार न था। थक - हारकर मैंने एक भूतपूर्व गुंडे की बेटी का उद्धार करने की सोची। ये मेरा तीसरा और अंतिम प्रयास था। गुंडे की बेटी भी गुंडी थी। मुझसे पहले वह दो लोगों का उनके जीवन से उद्धार कर चुकी थी, ये बात मुझे मालूम न थी। ख़ैर, गाजे - बाजे के साथ मैं उसकी मांग का नया सिंदूर बन गया।
अब मैं अधिकृत तौर पर उससे प्रेम कर सकता था। मैं कोई शुरुआत करता, उसके पहले ही बक्से में रखा वह ऐतिहासिक प्रेम पत्र उसके हाथ लग गया और उसने मुझे इतिहास बनाने में ज़रा भी देर नहीं की। इतिहास में दाखिल होते ही मुझे जो नया आशियाना मिला, वह एक बरगद का पेड़ था। इस पर कुछ सीनियर भूत पहले से रहते थे। इसके ठीक सामने एक पीपल का पेड़ था, जिसे ' चुड़ैल हॉस्टल ' के नाम से जाना जाता था। उस हॉस्टल पर नज़र पड़ते ही मैं बुरी तरह चौंक पड़ा। ज़िंदा होता तो चीख पड़ता। वहां मेरा पहला प्यार अर्थात हाई स्कूल वाली पड़ोसन हाथों में शमा लिए ' कहीं दीप जले कहीं दिल ' गा रही थी। अब वो मुकम्मल और हसीन चुड़ैल बन चुकी थी।
उसे देख मेरा भूत ख़ुशी से पागल होते - होते बचा। लेकिन, ये ख़ुशी बहुत देर न ठहर सकी... अभी मैं अपनी महबूबा का ठीक से दीदार भी न कर पाया था कि उस हॉस्टल में एक नई चुड़ैल ने एंट्री ली। वो चुड़ैल बनने से पहले भी चुड़ैल थी अर्थात मेरी पत्नी थी। पूरी ज़िंदगी जिस लव स्टोरी को पूरा करने का मैं सपना देखता रहा, वह फिर अधूरी रह गई थी। अंत में कहानी सिर्फ़ इतनी है कि मेरी बीवी यानी गुंडे की बेटी ने ख़ुद को बेवा बनाने के बाद अंगूर की बेटी का इतना सेवन किया कि टें बोल गई। और, अब स्थाई रूप से मेरी छाती पर, जो अब नहीं थी, मूंग दलने आ गई। कौन कहता है कि मरने के बाद दो दिल मिल जाते हैं।
- कमल किशोर सक्सेना
जब मोहल्ले में बुल्डोजर आया
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बात इतनी सी नहीं थी। कई क्विंटल की थी। रात तक सब ठीक था। मोहल्ले के लोग अपनी दिनचर्या पूरी करके जब सोने गए तो सब कुछ सामान्य था। लेकिन सुबह आंख खुली तो चौराहे पर एक बुल्डोज़र खड़ा देखा। उसे देखते ही सब चौंक पड़े। बुल्डोज़र दिखना अच्छा संकेत नहीं था। ये काली बिल्ली के रास्ता काटने या ज़रूरी काम से निकलते समय छींक देने से भी बड़ा अपशकुन था। बुल्डोज़र का मतलब यमदूत का मशीनी संस्करण। किसी वैध अपराधी या अवैध इमारत का एनकाउंटर।
देखते ही देखते मोहल्ले वालों में कानाफूसी शुरू हो गई।
"किसके कर्मों का फल है ये, जो हमारा चैन उड़ाने आया है?"
"कल्लू कबाड़ी को दरोगा जी कई बार चोरी-चकारी छोड़ देने की वार्निंग दे चुके थे... आख़िर आ गई न शामत।"
"खड़े-खड़े लफ्फाज़ी करने से कुछ न होगा...सोचो इस मुसीबत से कैसे बचा जाए।"
"चीते की चाल, बाज़ की नज़र और बाजीराव की तलवार से बचना आसान है मगर बाबा के बुल्डोज़र से नहीं। तरकस से तीर निकल चुका है...अब लक्ष्य भेदकर ही लौटेगा।"
जितने मुंह थे, उतनी बातें। पांच मिनट के बाद एक गली से लुंगी-बनियान पहने ढाई सौ का इनामी बाबू बजरंगी निकला। उसके हाथ में एक तख्ती थी, जिस पर लिखा था-'दुहाई हो...जान की दुहाई हो... मैं सरेंडर कर रहा हूं...मेरा एनकाउंटर न किया जाए।' बाबू को देखकर सबके मुंह से सिसकारी निकल गई। अभी इस बदनसीब की उमर ही क्या है। जुर्म की दुनिया में आए एक साल भी तो नहीं हुआ। बेचारा न कुछ कमा पाया...न बचा पाया। बेचारे का कैरियर बनने के पहले ही उजड़ रहा है। भगवान ऐसा अपराधी किसी को न बनाए।
लेकिन बाबू पर इन सारी संवेदनाओं का कोई असर नहीं हुआ। वह अपनी मंज़िल अर्थात मोहल्ले की पुलिस चौकी की ओर बढ़ता ही गया। चौकी में एकमात्र सिपाही मौजूद था। उसने बाबू का सरेंडर नामा स्वीकार करने से मना कर दिया। कहा कि ये अधिकार दरोगा जी का है। चूंकि उन्होंने भी सवेरे-सवेरे बुल्डोज़र के दर्शन कर लिए हैं। अतः वह भी सरेंडर करने इंस्पेक्टर साहब के पास गए हैं। सुना है इंस्पेक्टर साहब के घर के बाहर भी बुल्डोज़र देखा गया है। इसलिए कोई ठिकाना नहीं कि वह भी एसपी साहब के यहां गए हों।
बेचारा बाबू अपनी बदकिस्मती पर आंसू बहाता हुआ अब पुलिस चौकी के बाहर अनशन कर रहा है। इस बीच बुल्डोज़र के संक्रमण से जो अन्य प्रभाव पड़े, वे इस प्रकार हैं- दूध में पानी मिलाने वाले पुत्तन घोसी ने प्रायश्चित स्वरूप अपने ग्राहकों को घी और मक्खन देने का निर्णय ले लिया। मोहल्ले के डॉक्टर झटका के नर्सिंग होम में भी डिस्काउंट लागू कर दिया गया। पैर की हड्डी टूटने पर हाथ का प्लास्टर मुफ़्त। इलाज के दौरान मौत हो जाने पर एंबुलेंस के साथ कफ़न सहित अंतिम संस्कार सामग्री मुफ़्त। सिर्फ़ यही नहीं, बुल्डोज़र की कृपा से मोहल्ले के खुले मैनहोलों में ढक्कन लग गए। स्ट्रीट लाइट के खराब बल्ब बदल गए। बिजली चोरी करने वालों ने खंभे से अपनी-अपनी कंटिया उतार ली।
मोहल्ले में टीवी के न्यूज़ चैनलों या ओटीटी पर गूंजती वेब सिरीज़ की आवाज़ों की जगह चैन की बंसी बजती सुनाई देने लगी। लड़कों ने नशा न करने की सामूहिक प्रतिज्ञा कर डाली। लड़कियां और महिलाएं बिना छिड़े स्कूल-कॉलेज और मार्केट जाने लगीं। फेरी वाले बिना डंडी मारे सब्ज़ी और फल तोलने लगे। काली कमाई करने वाले व्यापारी ख़ुद अपने बही-खाते जीएसटी कार्यालय में जाकर जमा कर आए। और तो और, जानवरों में भी तमाम सुधार देखे गए। कुत्ते अनुशासित हो गए। उन्होंने टाइम टेबल बना लिया। हफ्ते के पहले तीन दिन भौंकते और बाद के तीन दिन काटते। इतवार को छुट्टी मनाते। आवारा गायों ने भी यातायात नियमों का पालन शुरू कर दिया और चौराहे या सड़क के बीच बैठना छोड़ दिया।
तीन दिन बाद। अचानक एक आदमी आया। बुल्डोज़र पर बैठा। उसे स्टार्ट किया और लेकर जाने लगा। मोहल्ले वाले हैरत में। उससे पूछा तो जवाब मिला, "यहां का काम ख़त्म हो गया। अब इसे दूसरे मोहल्ले में रखने जा रहा हूं।"
- कमल किशोर सक्सेना
Wednesday, April 7, 2021
दारू पदावली (सरलार्थ) ------------------
नोट : इस पदावली में मूल पद ना देकर केवल उनका भावार्थ दिया जा रहा है। इन्हें पढ़कर पाठकगण मूल पदों का स्वयं अंदाज़ लगा लें।
(1)
कवि कहता है - दारू की दुकानें खुल गई हैं। ये देखकर पियक्कड़ जन उसी प्रकार आनंदित हैं, जैसे कोई टुच्चा चार जगह से जुड़ा नोट चलाकर होता है। जैसे टीचर की नानी मरने के कारण अचानक स्कूल में छुट्टी हो जाने से होमवर्क ना करने वाला बच्चा होता है। जैसे चौराहे पर मुर्गा बना सीनियर लाकडाउन तोड़क जूनियर को मुर्गत्व प्राप्त होता देखकर होता है।
(2)
डेढ़ माह की जुदाई के बाद मयखानों का घूंघट उठा है। अरमानों की बारात लिए दारूबाज लाइन में खड़े हैं। उन्हें ना आंधी डिगा पा रही है और ना बेमौसम बरसात। सच्चे सुरा प्रेमियों की यही पहचान है। उन्हें गर्व भी है कि मुसीबत से भरे इस कोरोना काल में उन्हें डूबती अर्थव्यवस्था को उबारने लायक समझा गया। ऐसे देशभक्तों की जितनी भी सराहना की जाए, कम है। ऐसे देश रत्नों को सुराश्री, सुराभूषण और सुरा रत्न जैसे पुरस्कारों से नवाजा जाना चाहिए।
(3)
एक ब्योड़ा दूसरे ब्योडे से कहता है - भगवान के घर देर है लेकिन अंधेर नहीं। आखिर हमारी डेढ़ महीने की तपस्या रंग ले ही आई... मयखाना खुला। सच्चे मन से किया गया पुरुषार्थ व्यर्थ नहीं जाता। क्वार्टर, अद्धे, बोतल या पाउच की शक्ल में वापस आता है। इसलिए हे सुरापति! अपने तप की शक्ति पहचान। एक सांस में पूरा अध्धा खींचने के बाद साथी मयवीर जवाब देता है - तेरी मां का टना ... कहां है कोरोना। कैसा है कोरोना। जरा सामने तो आ ना।
(4)
कवि अपना चौथा पैग बनाते हुए आगे कहता है - नाली में पड़ा ...कीचड़ से सराबोर दारूबाज श्वान से भी श्रेष्ठ होता है क्योंकि श्वान सुरा से रीता होता है। दारूबाज सड़क पर भी गिरता है तो घोड़े पर सवार होकर। ऐसे नशा शिरोमणि के आगे संसार के सारे वाहन नतमस्तक हैं। वे अभिनंदनीय हैं...प्रशंसनीय हैं...अनुकरणीय है। नशे में टुन्न दारूबाज के सुख की कल्पना कोई नहीं कर सकता। ये संसार का सर्वोत्तम सुख है।
(5)
एक सखी दूसरी सखी से कहती है - हमारे परमेश्वर अच्छा भला झाडू - पोंछा कर रहे थे ... डांट डपट भी सुनने की आदत डाल लिये थे। मगर ठेका खुल गया। सरकार बेवफा निकली। खुद स्त्रीलिंग होकर भी महिलाओं का साथ ना दिया। दूसरी सखी मुंह से आग की लपटें निकालकर जवाब देती है - सच कहा तुमने लेकिन अगर मेरे सांवरिया ने अब पुराने तेवर दिखाए तो कसम लाकडाउन की... चौराहे के पुलिस वाले के हवाले कर दूंगी और कह दूंगी कि मुआ बहुत खांसता है ... ले जाओ अस्पताल। डाल दो चार - छह साल के क्वारांटिंन में।
कमल किशोर सक्सेना
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