Sunday, July 10, 2022

एक्शन रिप्ले

एक्शन रिप्ले ------------ वैधानिक चेतावनी : हमारी यह बकवास पढ़ने से पहले दो सौ ग्राम बादाम, सौ ग्राम पिस्ता, डेढ़ सौ ग्राम काजू और पाव भर देसी घी का सेवन कर लें। संभव हो तो अमिताभ बच्चन से पूछकर किसी चिल्ड तेल की सिर में मालिश भी करवा लें। कमज़ोर दिल और हाज़मे वाले न ही पढ़ें तो बेहतर। फिर भी ज़िद हो तो अपने रिस्क पर पढ़ें। आपके मन में ये स्वाभाविक सवाल उठ सकता है कि जिस चीज़ के पढ़ने के पहले इतनी गिज़ा ज़रूरी हो, उसे हमने क्या खाकर लिखा होगा। तो बताते चलें कि हम खाते-पीते, पहनते-ओढ़ते-बिछाते घर से हैं। इसलिए हमारी रूहानी, जिस्मानी, रूमानी क्षमताओं पर शक न करें। अब आइए हमारी विशुद्ध मौलिक बकवास पर। आपने प्रकाश का नाम तो सुना ही होगा। न न...हम प्रकाश झा, प्रकाश फर्नीचर, प्रकाश हेयर कटिंग सैलून या प्रकाश कुल्फी वाले की बात नहीं कर रहे। हम बात कर रहे हैं उस प्रकाश की, जो सूरज निकलने, एलईडी बल्ब जलाने या विज्ञान नामक विषय में पाया जाता है। इसकी गति होती है 3 लाख किलोमीटर प्रति सेकंड। यानी बहुतै तेज़। दूसरा होता है प्रकाश वर्ष। ये प्रकाश का बाप नहीं बल्कि पड़ दादा के ऊपर कई पड़ दादा होता है। ये विज्ञान के साथ-साथ अंतरिक्ष से भी संबंध रखता है। ये दूरी नापने की इकाई है, जैसे गज-फ़िट या मीटर-किलोमीटर। यानी, दूरी नापने के जब सारे पैमाने ख़त्म हो जाते हैं, सस्ते-मद्दे कंप्यूटर-लैपटॉप भी टें बोल जाते हैं, तब दूरियों के पड़ दादा आज़म यानी प्रकाश वर्ष जन्म लेते हैं। एक प्रकाश वर्ष अर्थात वो दूरी जो प्रकाश एक वर्ष में तय करता है। और, प्रकाश की गति आपको पता ही है तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकंड। अब एक प्रकाश वर्ष में वह कितनी दूर पहुंचेगा, ये हिसाब लगाने के लिए थोड़ा काजू-बादाम और चबा लें। फिर हमारी बात ध्यान से समझिए-हमारी पृथ्वी का सारा जीवन हर सेकंड लाइव चल रहा है। इसे अंतरिक्ष से बखूबी देखा जा सकता है कि हम इस वक्त क्या कर रहे हैं। अब थोड़ा पीछे यानी अतीत में चलिए। मान लीजिए दो वर्ष पीछे। तो दो वर्ष पहले हम जो कर चुके थे, उसकी किरणें या फ़िल्म अंतरिक्ष में उसी समय पहुंच गई होंगी। राइट। लेकिन अंतरिक्ष तो अनंत है। उसका न ओर है न छोर। इसलिए वे अतीत की किरणें अब भी कहीं यात्रा कर रही होंगी। हम किसी तकनीक की मदद से, उन किरणों यानी प्रकाश से भी बहुत तेज़ गति से चलकर यदि उन्हें पकड़ लें तो आज की तारीख में देख सकते हैं कि दो साल पहले हमने क्या किया था। हो सकता है ये सारी बातें आपके सिर के ऊपर से प्रकाश की गति से भी तेज़ रफ़्तार से गुज़र रही हों तो आधा पाव चिलगोज़ा और खा लीजिए। और, दिल थाम कर सुनिए आगे की वो दास्तान, जो आपको हॉलीवुड की फिल्मों की याद दिला देगी। अब आइए मुख्य बकवास पर। उस विशेष तकनीक के ज़रिए हमारा इरादा पांच हज़ार प्रकाश वर्ष पहले से अपनी यात्रा शुरू करने का था। किंतु फिर ध्यान आया कि उसी समय महाभारत का युद्ध हुआ था। हालांकि मन में लालच भी था कि प्रभु श्रीकृष्ण के दर्शन करते चलें। लेकिन उससे ज़्यादा डर था कि प्रयोग के चक्कर में कहीं कौरवों या पांडवों में से किसी की तलवार के शिकार हो गए तो भविष्य में होने वाले हमारे बच्चे पैदा होने से पहले ही अनाथ हो जाएंगे। लिहाज़ा हमने अपना टारगेट सिकोड़ना शुरू किया। रास्ते में मौर्य, गुप्त और हर्षवर्धन वंश से लेकर सम्राट अशोक तक के युग पड़े किंतु यहां भी वही तीर, तलवार और भाले आदि के ख़तरे थे। इसलिए रुके नहीं। पीछे आते-आते पंद्रहवीं शताब्दी आ गई। वहां मुग़ल साम्राज्य की नींव खुदने जा रही थी। हम फ़ौरन से भी पहले वहां से निकल लिए। कौन बवाल में पड़े। हमें पता था कि आगे हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट शुरू हो जाएगा। वहां से हम इतनी तेज़ भागे कि ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश हुकूमत जैसे स्टेशनों पर भी नहीं रुके और हमारा ब्रेक सीधे आज़ाद और लोकतांत्रिक भारत में लगा। अब हम पैदा होने वाले थे। पैदा होने के बाद जो पहली क्लिप आप लोगों से शेयर कर रहे हैं, उसमें हम स्कूल जाने लगे हैं। तीसरी कक्षा में हैं। लड़कियां भी साथ में पढ़ती हैं लेकिन तब हमें को-एजूकेशन का मतलब नहीं पता था। सिर्फ़ ये पता था कि क्लास के कुछ बच्चों के टिफ़िन में रोज़ मिठाई क्यों होती है और हमारे में वही परांठा-सब्ज़ी। अब हम छठे दर्जे में हैं। टीचर के हाथ का झन्नाटेदार झापड़ खाकर अभी-अभी स्कूल से लौटे हैं। दहाड़ें मारकर रो रहे हैं क्योंकि माता-पिता के अलावा किसी का यह पहला तमाचा था। आठवें दर्जे तक ये सोचकर खुश होते रहे कि नौंवी से केवल पांच विषय पढ़ने होंगे। पांच विषय यानी सिर्फ़ पांच किताबें। लेकिन बुरा हो लॉर्ड मैकाले का, जिनकी शिक्षा व्यवस्था में किताबों के ढेर में हम ऐसा दबे कि स्नातक करने के बाद ही सांस ले सके। अब हमारी नौकरी एक अख़बार में लग चुकी है। हमारे संपादक के सिर पर बाल नहीं हैं। लोग कहते हैं कि वह बहुत विद्वान हैं। इस बात से प्रभावित होकर हम भी सैलून में जाकर गंजे हो जाते हैं। विद्वता का तो पता नहीं, हां सहकर्मी ज़रूर पूछ रहे हैं कि पिताजी कब मरे। जब ड्यूटी करके घर लौटे तो सिर में बालों के अंकुर फूट रहे थे। लेकिन पिताजी ने जूता लेकर वे भी साफ़ कर दिए। अब माताजी को अपने लिए एक कुलीन और सुशील बहू की ज़रूरत है। उसकी खोज में हमारे सारे रिश्तेदारों से लेकर पड़ोसी-परिचित तक सब लगे हैं। हम भी बाज़ार, दफ़्तर, सिनेमा आते-जाते रास्ते में दिखने वाली हर लड़की में संभावना खोज रहे हैं। एक चेहरे में संभावना कुछ ज़्यादा नज़र आती है तो हम आगे बढ़ते हैं लेकिन ये क्या...! वह एक मुक्का हमारी पीठ पर जड़ती है। हम दर्द से कराह उठते हैं। मुंह से निकलता है, "बहन जी...हमारा अपराध क्या है? आपको बुरा लगा हो तो काजू-बादाम के पैसे ले लो। बच्चे की जान लोगी क्या...!" इसके साथ ही अचानक हमारी आंख खुल जाती है। सामने बेगम साक्षात चंडी का रूप धरे खड़ी हैं और धाराप्रवाह बोले जा रही हैं, "कल कितनी भांग खाकर आए थे...ये काजू, बादाम, चिलगोज़ा...प्रकाशवर्ष...सब क्या है? नींद में क्या-क्या बड़बड़ा रहे थे...कुछ होश है!" अब हम वाकई होश में आ चुके थे। - कमल किशोर सक्सेना

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