Monday, May 9, 2022

एक छोटी सी लव स्टोरी ------------------------------- मैं एक भूत हूं। भूत, भविष्य, वर्तमान वाला नहीं... मरने के बाद वाला। मरने के पहले जब मैं ज़िंदा था तो बाकायदा पैंसठ किलो का शरीर रखता था। उस शरीर में करीब 150 ग्राम का दिल। दिल में जान के अलावा तमाम अरमान, सुख - चैन और तमन्नाएं भी बसती थीं। एकदम हाउसफुल था। ऐसी खचाखच स्थिति में वह मेरे पड़ोस में रहने आ गई। उसे देखते ही पहला काम ये हुआ कि मेरे दिल से जान निकलकर उसमें ट्रांसफ़र हो गई, सुख - चैन बग़ावत कर बैठे, अरमानों की सुनामी आ गई। ये मेरा पहला प्यार था। तब मैं हाई स्कूल में पढ़ता था और वह आठवीं में। हम दोनों की शिक्षा भी नाबालिग थी और हम भी। छह महीने मैं उसे बस देखता ही रहा। तब मुझे समझ में आया कि वह कहीं और देखती है। उसका कहीं और देखना आंखों के दोष के कारण नहीं, बल्कि इस कारण था कि उसकी दृष्टि, मुझे पारकर सामने रहने वाले एक और लड़के पर ठहरती थी। मेरी इकतरफ़ा प्रेम कहानी में पहली बार विलेन की एंट्री हुई। दिल ने भी पहली बार ईर्ष्या की भावना महसूस की। नतीजा, अगले दिन मैंने उस विलेन को बिना किसी कारण के पीट दिया। वह विज्ञान का विद्यार्थी था। उसने न्यूटन का तीसरा नियम पढ़ा था, अतः उसने प्रतिक्रिया में मुझे पीट दिया। उस ज़माने में मेरे आत्मसम्मान का जन्म नहीं हुआ था, फिर भी उसे ठेस लग गई। उन्हीं दिनों मैंने कहीं पढ़ लिया कि मोहब्बत और जंग में सब जायज़ होता है। यहां मोहब्बत ( भले इकतरफ़ा ) भी थी और जंग भी, अतः मैं कुछ जायज़ करने का मौक़ा ढूंढने लगा। कहते हैं कि सच्चे इश्क़ में तमाम मुश्किलें आती हैं... इसलिए यहां भी आईं। मैं कुछ करने का मौक़ा ही ढूंढता रह गया और उसके पापा ने दूसरे मोहल्ले में मकान ढूंढ लिया। लेकिन, सच्चे आशिक़ की तरह मैंने हार नहीं मानी और अपने इश्क़ की गुमटी उसके स्कूल के बाहर डाल ली। रोज़ अपने स्कूल की जगह मैं उसके विद्यालय में हाज़िरी देने लगा। इस चक्कर में मेरी अटेंडेंस शॉर्ट हो गई और परीक्षा में बैठने से रोक दिया गया। मुझे परीक्षा न दे पाने से ज़्यादा दुख इस बात का था कि उसने अब तक एक बार भी मेरी ओर नज़र उठाकर देखा नहीं था। अपने घुटने की यादगार चोट के अलावा, अब मैंने इश्क़ की चोट भी महसूस की। उन दिनों इश्क़ में चोट खाए लोग गांजा, चरस, शराब आदि पौष्टिक पदार्थों का सेवन करते थे, जिससे उनमें बड़े से बड़ा सदमा सहने की हिम्मत बनी रहती थी। अतः मैंने बिना समय गंवाए मोहल्ले की ' नशा भक्षण समिति ' की सदस्यता ग्रहण कर ली। वह समिति वास्तव में घायल और टूटे दिल वालों का नर्सिंग होम थी। कुछ सदस्य इश्क़ में पागल होकर समिति की शरण में आए थे, उनके लिए अलग विभाग था। कुछ आई सी यू में थे। समिति के अध्यक्ष को ख़ुद कई जगह से ठुकराए जाने का लंबा तजुर्बा हासिल था, इसलिए वह ड्रग्स लेते थे। मेरा केस अभी गंभीर नहीं हुआ था, लिहाज़ा मुझे दारू के तीन पैग का हल्का डोज़ देने के बाद लेटर - ओ - थेरोपी ( लव लेटर लिखने ) की सलाह दी गई। मैं देवदास पर नवीं बार फ़िल्म नहीं बनवाना चाहता था, अतः इस थेरोपी के लिए राज़ी हो गया। मेरे अंदर लिखने - पढ़ने का इतना ही सलीका होता तो हाई स्कूल न पास कर लेता। लेटर लिखवाने के लिए मुझे दूसरे मोहल्ले के एक ' प्रेम पत्र विशेषज्ञ ' की सेवाएं लेनी पड़ीं क्योंकि अपने मोहल्ले में सब मेरे जैसे थे। उनके लिए भैंस और काले अक्षर में कोई भेद न था... गनीमत सिर्फ़ इतनी थी कि उन्होंने कभी काले अक्षर से दूध दुहने की कोशिश नहीं की। उन प्रेम पत्र विशेषज्ञ के पास इतना काम था कि अगले छह महीने तक समय नहीं था। ऐसा लग रहा था, जैसे उस दौर का हर व्यक्ति बस प्रेम करने का ही काम करता था, बाक़ी काम अमेरिका आदि देशों की मदद से होते थे। ख़ैर, छह महीने बाद अपने हिस्से का प्रेम पत्र लिखवाने के बाद जब मैं उसे देने गया तो पता चला कि वह स्कूल ही नहीं, शहर भी छोड़ गई। इस झटके के बाद क़ायदे से मुझे संपूर्ण रूप से टूट जाना चाहिए था लेकिन ख़ाली मेरा दिल टूटा, जिसे मैंने फेविकोल से चिपकाकर काम चलाने लायक बना लिया। पत्र लिखवाने की फ़ीस तो बेकार गई ही, साथ ही उसे पाने की आख़िरी उम्मीद भी टूट गई। अब मेरे सामने दो रास्ते थे... आत्महत्या कर लूं या किसी का अपहरण कर उससे प्रेम करूं। लेकिन, प्रेम में हिंसा का कोई स्थान नहीं होता, ये सोच मैं जेब में पत्र डालकर, उसे देने योग्य चेहरे की खोज में जुट गया। समय बीतता गया। तब तक मैं हाई स्कूल में पांच बार फेल होकर मोहल्ले में नया रिकॉर्ड बना चुका था। इस बीच एक से नज़रें मिलीं भी, वह भी हाई स्कूल में तीन बार फेल हो चुकी थी। लेकिन उसे भी पत्र देने की नौबत नहीं आई क्योंकि वह और किसी सीनियर फेलियर की तलाश में थी। इसके बाद उक्त प्रेम पत्र देने के लिए मैंने तीन प्रयास और किए। पहला प्रयास राशन की लाइन में किया। वह महिलाओं की लाइन में पीछे लगी थी। उसका साथ पाने को मैं अपनी लाइन में आगे से पीछे आ गया। लेकिन, मेरे आगे से हटते ही उसने अपने भाई को मेरे स्थान पर लगा दिया और ख़ुद घर चली गई। चिट्ठी जेब में ही पड़ी रह गई। दूसरी कोशिश तब की, जब घरवालों को पूरा विश्वास हो गया कि मैं इस जन्म में हाई स्कूल पास नहीं कर सकता। अंततः इसी क्लास में लगातार सात बार फेल होने के बाद पढ़ाई ने मुझे छोड़ दिया। तब पड़ोस के घर में बर्तन मांजने वाली को मैंने उक्त पत्र देने की कोशिश की। उसने अपने पति से शिकायत कर दी और मैं अपनी टांगों से हाथ धोते - धोते बचा। केवल पैर तुड़वाने के एग्रीमेंट के बाद मैंने प्रेम के पत्राचार पाठ्यक्रम से तौबा कर ली। पत्र को बक्से में रखकर मैं लगभग भूल गया। तीन महीने बाद मैं फिर अपने पैरों पर खड़ा हो गया। इस बीच, साथ के सभी यार - दोस्त, विवाह और बच्चों को प्राप्त हो चुके थे। शुभचिंतकों ने सलाह दी कि शादी कर लो, प्रेम उसके बाद भी किया जा सकता है। मैं तैयार हो गया किंतु शहर में अब कोई शरीफ़ परिवार मुझे अपना दामाद बनाने को तैयार न था। थक - हारकर मैंने एक भूतपूर्व गुंडे की बेटी का उद्धार करने की सोची। ये मेरा तीसरा और अंतिम प्रयास था। गुंडे की बेटी भी गुंडी थी। मुझसे पहले वह दो लोगों का उनके जीवन से उद्धार कर चुकी थी, ये बात मुझे मालूम न थी। ख़ैर, गाजे - बाजे के साथ मैं उसकी मांग का नया सिंदूर बन गया। अब मैं अधिकृत तौर पर उससे प्रेम कर सकता था। मैं कोई शुरुआत करता, उसके पहले ही बक्से में रखा वह ऐतिहासिक प्रेम पत्र उसके हाथ लग गया और उसने मुझे इतिहास बनाने में ज़रा भी देर नहीं की। इतिहास में दाखिल होते ही मुझे जो नया आशियाना मिला, वह एक बरगद का पेड़ था। इस पर कुछ सीनियर भूत पहले से रहते थे। इसके ठीक सामने एक पीपल का पेड़ था, जिसे ' चुड़ैल हॉस्टल ' के नाम से जाना जाता था। उस हॉस्टल पर नज़र पड़ते ही मैं बुरी तरह चौंक पड़ा। ज़िंदा होता तो चीख पड़ता। वहां मेरा पहला प्यार अर्थात हाई स्कूल वाली पड़ोसन हाथों में शमा लिए ' कहीं दीप जले कहीं दिल ' गा रही थी। अब वो मुकम्मल और हसीन चुड़ैल बन चुकी थी। उसे देख मेरा भूत ख़ुशी से पागल होते - होते बचा। लेकिन, ये ख़ुशी बहुत देर न ठहर सकी... अभी मैं अपनी महबूबा का ठीक से दीदार भी न कर पाया था कि उस हॉस्टल में एक नई चुड़ैल ने एंट्री ली। वो चुड़ैल बनने से पहले भी चुड़ैल थी अर्थात मेरी पत्नी थी। पूरी ज़िंदगी जिस लव स्टोरी को पूरा करने का मैं सपना देखता रहा, वह फिर अधूरी रह गई थी। अंत में कहानी सिर्फ़ इतनी है कि मेरी बीवी यानी गुंडे की बेटी ने ख़ुद को बेवा बनाने के बाद अंगूर की बेटी का इतना सेवन किया कि टें बोल गई। और, अब स्थाई रूप से मेरी छाती पर, जो अब नहीं थी, मूंग दलने आ गई। कौन कहता है कि मरने के बाद दो दिल मिल जाते हैं। - कमल किशोर सक्सेना
जब मोहल्ले में बुल्डोजर आया ------------------------- बात इतनी सी नहीं थी। कई क्विंटल की थी। रात तक सब ठीक था। मोहल्ले के लोग अपनी दिनचर्या पूरी करके जब सोने गए तो सब कुछ सामान्य था। लेकिन सुबह आंख खुली तो चौराहे पर एक बुल्डोज़र खड़ा देखा। उसे देखते ही सब चौंक पड़े। बुल्डोज़र दिखना अच्छा संकेत नहीं था। ये काली बिल्ली के रास्ता काटने या ज़रूरी काम से निकलते समय छींक देने से भी बड़ा अपशकुन था। बुल्डोज़र का मतलब यमदूत का मशीनी संस्करण। किसी वैध अपराधी या अवैध इमारत का एनकाउंटर। देखते ही देखते मोहल्ले वालों में कानाफूसी शुरू हो गई। "किसके कर्मों का फल है ये, जो हमारा चैन उड़ाने आया है?" "कल्लू कबाड़ी को दरोगा जी कई बार चोरी-चकारी छोड़ देने की वार्निंग दे चुके थे... आख़िर आ गई न शामत।" "खड़े-खड़े लफ्फाज़ी करने से कुछ न होगा...सोचो इस मुसीबत से कैसे बचा जाए।" "चीते की चाल, बाज़ की नज़र और बाजीराव की तलवार से बचना आसान है मगर बाबा के बुल्डोज़र से नहीं। तरकस से तीर निकल चुका है...अब लक्ष्य भेदकर ही लौटेगा।" जितने मुंह थे, उतनी बातें। पांच मिनट के बाद एक गली से लुंगी-बनियान पहने ढाई सौ का इनामी बाबू बजरंगी निकला। उसके हाथ में एक तख्ती थी, जिस पर लिखा था-'दुहाई हो...जान की दुहाई हो... मैं सरेंडर कर रहा हूं...मेरा एनकाउंटर न किया जाए।' बाबू को देखकर सबके मुंह से सिसकारी निकल गई। अभी इस बदनसीब की उमर ही क्या है। जुर्म की दुनिया में आए एक साल भी तो नहीं हुआ। बेचारा न कुछ कमा पाया...न बचा पाया। बेचारे का कैरियर बनने के पहले ही उजड़ रहा है। भगवान ऐसा अपराधी किसी को न बनाए। लेकिन बाबू पर इन सारी संवेदनाओं का कोई असर नहीं हुआ। वह अपनी मंज़िल अर्थात मोहल्ले की पुलिस चौकी की ओर बढ़ता ही गया। चौकी में एकमात्र सिपाही मौजूद था। उसने बाबू का सरेंडर नामा स्वीकार करने से मना कर दिया। कहा कि ये अधिकार दरोगा जी का है। चूंकि उन्होंने भी सवेरे-सवेरे बुल्डोज़र के दर्शन कर लिए हैं। अतः वह भी सरेंडर करने इंस्पेक्टर साहब के पास गए हैं। सुना है इंस्पेक्टर साहब के घर के बाहर भी बुल्डोज़र देखा गया है। इसलिए कोई ठिकाना नहीं कि वह भी एसपी साहब के यहां गए हों। बेचारा बाबू अपनी बदकिस्मती पर आंसू बहाता हुआ अब पुलिस चौकी के बाहर अनशन कर रहा है। इस बीच बुल्डोज़र के संक्रमण से जो अन्य प्रभाव पड़े, वे इस प्रकार हैं- दूध में पानी मिलाने वाले पुत्तन घोसी ने प्रायश्चित स्वरूप अपने ग्राहकों को घी और मक्खन देने का निर्णय ले लिया। मोहल्ले के डॉक्टर झटका के नर्सिंग होम में भी डिस्काउंट लागू कर दिया गया। पैर की हड्डी टूटने पर हाथ का प्लास्टर मुफ़्त। इलाज के दौरान मौत हो जाने पर एंबुलेंस के साथ कफ़न सहित अंतिम संस्कार सामग्री मुफ़्त। सिर्फ़ यही नहीं, बुल्डोज़र की कृपा से मोहल्ले के खुले मैनहोलों में ढक्कन लग गए। स्ट्रीट लाइट के खराब बल्ब बदल गए। बिजली चोरी करने वालों ने खंभे से अपनी-अपनी कंटिया उतार ली। मोहल्ले में टीवी के न्यूज़ चैनलों या ओटीटी पर गूंजती वेब सिरीज़ की आवाज़ों की जगह चैन की बंसी बजती सुनाई देने लगी। लड़कों ने नशा न करने की सामूहिक प्रतिज्ञा कर डाली। लड़कियां और महिलाएं बिना छिड़े स्कूल-कॉलेज और मार्केट जाने लगीं। फेरी वाले बिना डंडी मारे सब्ज़ी और फल तोलने लगे। काली कमाई करने वाले व्यापारी ख़ुद अपने बही-खाते जीएसटी कार्यालय में जाकर जमा कर आए। और तो और, जानवरों में भी तमाम सुधार देखे गए। कुत्ते अनुशासित हो गए। उन्होंने टाइम टेबल बना लिया। हफ्ते के पहले तीन दिन भौंकते और बाद के तीन दिन काटते। इतवार को छुट्टी मनाते। आवारा गायों ने भी यातायात नियमों का पालन शुरू कर दिया और चौराहे या सड़क के बीच बैठना छोड़ दिया। तीन दिन बाद। अचानक एक आदमी आया। बुल्डोज़र पर बैठा। उसे स्टार्ट किया और लेकर जाने लगा। मोहल्ले वाले हैरत में। उससे पूछा तो जवाब मिला, "यहां का काम ख़त्म हो गया। अब इसे दूसरे मोहल्ले में रखने जा रहा हूं।" - कमल किशोर सक्सेना