Saturday, July 9, 2022

मौत का फरमान

मौत का फ़रमान -------------- पहली बार हमें अपनी आंखों की काबिलियत पर शक़ हुआ। बचपन से हमें अपनी दोनों आंखों पर बहुत गुमान था। इसलिए नहीं कि वे आकार में बड़ी-बड़ी, बंटोला जैसी थीं। इसलिए भी नहीं कि कभी कहीं किसी से लड़ी नहीं, मतलब वर्जिन थीं। या, कि दोनों बराबर थीं, छोटी-बड़ी नहीं। वफ़ादार इतनी कि चश्मे की बैसाखी पकड़ने को तब तैयार हुईं, जब उन्हें एक-दूसरे को ही देखने में दिक्कत होने लगी। फिर इस कागज़ पर लिखी इबारत, जो हमारी आंखों को दिख रही थी, वह किसी और को क्यों नहीं दिखाई दे रही थी। और तो और, वो कागज़ भी किसी को नज़र नहीं आ रहा था। उस पर सिर्फ़ इतना लिखा था, "तुम्हारा समय पूरा हो चुका है। अब से ठीक 12 घंटे के बाद तुम्हारी दूसरे लोक की यात्रा शुरू होगी।" ये हमारे लिए एक तरह से मौत का फ़रमान था, जो घर के बाहर वाले कमरे में दरवाज़े के पास पड़ा था। उसे शायद दहलीज़ के नीचे से किसी ने भीतर सरकाया था। पोस्टमैन की करतूत भी नहीं हो सकती क्योंकि पत्र किसी लिफाफे में नहीं था और उस पर डाकखाने की मुहर भी नहीं थी। वैसे भी आजकल ई-मेल और व्हाट्स एप के ज़माने में डाक से चिट्ठी कौन भेजता है। हैरत तो यह थी कि घर में वो चिट्ठी हमारे अलावा किसी ने नहीं देखी। जबकि, सुबह 6 बजे से वह दरवाज़ा कई बार खोला-बंद किया जा चुका था। सबसे पहले ग्वाला आया। नल का ताज़ा पानी दे गया। उसमें थोड़ा दूध भी था। फिर शास्त्र सम्मत अर्धांगिनी का दर्ज़ा प्राप्त महिला ने सब्ज़ी वाले से धनिया-मिर्चा लिया। नियमतः उसे साथ में सब्ज़ी भी देनी पड़ी। उसके बाद विधि सम्मत भाई ( ब्रदर इन लॉ ) मिठाई की दुकान से चाशनी ले आया। उसके साथ जलेबी भी प्राप्त हो गई। दोनों बेटे भी अपने दैनिक कार्यक्रम के निमित्त, जिम से अतिरिक्त कैलोरी जलाकर और उतने ही वज़न का पसीना शरीर पर लादकर, वापस आ चुके थे। किंतु इन सबकी टोटल चार जोड़ी आंखों में से एक की भी नज़र उस चिट्ठी पर नहीं पड़ी। हद तो यह थी कि हम हाथ में चिट्ठी लिए खड़े थे लेकिन फिर भी किसी को कुछ नहीं दिख रहा था। उल्टे परिवार के लोग हमारा चेहरा देख रहे थे और इस बात पर एकमत होने का प्रयास कर रहे थे कि हमें सीधे नूर मंज़िल ( पागलखाना ) में भर्ती कराया जाए या पहले किसी अच्छे मनोचिकित्सक को दिखा लिया जाए। हम समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें? इस चिट्ठी को किसी की धमकी मानें या वाकई ऊपर वाले का फरमान। धमकी, हमें कौन देता। एक वही शास्त्र सम्मत वाली थीं, लेकिन वह मौखिक देती थीं। बचा ऊपर वाला तो हमें जहां तक याद पड़ता था, हमारे खानदान में दूर-दूर तक किसी को कोई ऐसा फ़रमान नहीं मिला। सबने बिना किसी नोटिस के ही दुनिया छोड़ी। हमें ऐसी स्थिति में घबराने का भी अनुभव नहीं था, फिर भी हिम्मत जुटा कर घबरा लिए। अपनी उन्हीं दुलारी आंखों को, अब हमारी फ़ोटो पर माला पड़ी नज़र आने लगी। परिवार के लोगों से बहस करना हमने रिटायरमेंट के पहले ही छोड़ दिया था। वे भी हमको अधिकांश मामलों में रिटायर मानकर चलते थे। हमने वह चिट्ठी जेब में डाली और तीन-तीन फिट की जुड़वां टांगों पर, शेष ढाई फीट का जिस्म लादे, लंबे-लंबे डग भरते हुए, बचपन के एकमात्र जीवित दोस्त के पास पहुंच गए। उसे लगातार ज़िंदा रहने का 66 वर्ष का अनुभव था। इत्तफ़ाक से वह उस दिन भी ज़िंदा मिल गया। हमने उसे संक्षेप में सारी दास्तान सुनाई। जिसे सुनने के लिए उसे अपने एक कान से रुई निकालनी पड़ी। दूसरा कान मैल से जाम था। सारी बात सुनकर उसने अपनी दोनों आंखें बंद कर लीं और इस तरह गंभीरता से चिंतन करने लगा, जैसे देश की विदेश नीति में आमूल चूल परिवर्तन की दिशा में विचार कर रहा हो। इस बीच उसके मुंह में मसाले की जुगाली चलती रही। करीब पांच मिनट बाद उसकी आंखों ने जीवित होने का अहसास दिलाया। साथ में मुंह की मांसपेशियों ने भी अपना जीवन प्रमाणपत्र पेश किया और माहौल के सन्नाटे को चीरते हुए जो दो शब्द हमारे कानों से टकराए, वे थे, "चिट्ठी दिखाओ।" हमने जेब से चिट्ठी निकालकर उसके हाथ पर रख दी। मगर उसने हिकारत से वह हमें वापस करते हुए कहा, "यार सठियाये तो हम-तुम एक साथ थे। लेकिन लगता है तुमने कोई एक्स्ट्रा कोर्स भी कर लिया है। मैंने चिट्ठी मांगी और तुम रुमाल थमा रहे हो...वो भी नाक के आंसुओं में डूबा हुआ।" उसकी बात से हम चौंके। इसका मतलब साफ़ था कि चिट्ठी उसे भी नहीं दिख रही थी। उधर वह अपनी भड़ास निकालने में लगा था। कह रहा था, "लखनऊ की गर्मी तुम्हारे दिमाग़ में चढ़ गई है। घर जाओ, आराम करो। दो सिल्ली बर्फ़ मैं भिजवा देता हूं...एक बिछा कर लेट जाना, दूसरी ओढ़ लेना।" हमने अपने स्थाई कमीने दोस्त को खा जाने वाली नज़रों से देखा। लेकिन खाया नहीं क्योंकि उस दिन मंगलवार था और मंगल को हम नॉन वेज नहीं खाते। फिर हमने गूगल से ढूंढ-ढूंढकर चुनिंदा मौलिक लानतें उस पर भेजीं। इस बीच हम घबराहट की चरम सीमा के काफ़ी पास आ गए । डर था कि कहीं इसके बाद दूसरे लोक की सीमा न प्रारंभ हो जाए। ये विचार मन में आते ही वहां से रिवर्स गियर लगा कर भूतकाल हो गए। इतनी देर में यह तो तय हो गया था कि उक्त चिट्ठी हमारे अलावा किसी को नहीं दिख रही है। हमने तसल्ली के लिए उस चिट्ठी को फिर अपनी आंखों के आगे कई एंगल से नचाया। वह कत्थक, भरत नाट्यम, कत्थकली, कुचीपुड़ी, मोहिनीअट्टम आदि विधाओं में खूब नाची। मगर हर स्टेप के साथ हमें संदेश देना नहीं भूली कि हमारे पास सिर्फ़ 12 घंटे का समय शेष है। चिट्ठी पर यह तहरीर पढ़ते ही हम पर घबराने का दूसरा दौरा पड़ा क्योंकि इस बीच एक घंटा हम बर्बाद कर चुके थे। अब सिर्फ़ 11 घंटे का समय बाक़ी था। उसके बाद....! उसके बाद हमारे नाम के आगे 'स्वर्गीय' लग जाएगा। "और कहीं मरने के बाद नरक मिला तो?" दिल ने दिमाग़ के आगे शंका रखी। "तो भी यहां किसको पता चलेगा...लिखा तो फिर भी स्वर्गीय ही जाएगा। आज तक किसी के नाम के पहले नारकीय लिखा देखा है!" दिमाग़ की दलीलों के आगे दिल ने घुटने टेक दिए। जो होगा देखा जाएगा। हमने 'स्वर्ग' या 'नरक' के झगड़े में न पड़कर अपने बाक़ी बचे एक-एक मिनट का सदुपयोग करने का फ़ैसला किया। समय कम था और कामों की फेहरिस्त लंबी। हमने हिसाब लगाना शुरू किया। तमाम काम अधूरे पड़े थे। कुछ शुरू ही नहीं हुए थे। बचे हुए 11 घंटे में से एक घंटा यह सोचने में ही निकल गया कि हम कौन सा काम करें और कौन सा छोड़ें। फिर ये भी खयाल आया कि कहीं मरने के बाद भूत न बन जाएं। सुना था कि जिनके काम या हसरतें अधूरी रह जाती हैं, वे भूत बनकर मारे-मारे फिरते हैं। इस विचार के उठते ही हम डर से कांपने लगे। फ़ौरन हनुमान चालीसा पढ़नी शुरू कर दी। डर कुछ कम हुआ तो हिम्मत बढ़ी। हनुमान चालीसा वाला नुस्खा तो कारगर था। लेकिन ये गारंटी नहीं थी कि मृत्योपरांत पढ़ने की परमिशन होगी...क्योंकि आज तक किसी भूत या आत्मा द्वारा हनुमान चालीसा के पाठ का ज़िक्र नहीं सुना। यही पता था कि उसे सुनकर भूत-प्रेत भाग जाते हैं। अजीब कश्मकश थी। हमें मरने का कोई तजुर्बा भी नहीं था और न कोई भूत-प्रेत हमारी फ्रेंड लिस्ट में था, जो शंका समाधान करता। हम पर तीसरा दौरा पड़ा। गनीमत रही कि दौरा घबराहट का था, दिल का नहीं...वरना डेडलाइन से पहले ही इस जहां से डेबिट होकर उस जहां में क्रेडिट हो चुके होते। अब 8 घंटे बचे थे हमारे पास। वैसे तो 8 घंटे बहुत होते हैं। नौकरी में एक शिफ्ट की ड्यूटी ख़त्म हो जाती है लेकिन जब ज़िंदगी की शिफ्ट का सवाल हो तो बहुत कम मालूम पड़ते हैं। हमें लगा अगर अधूरे काम निपटाने लगे तो बचा हुआ सारा समय उसी में ख़त्म हो जाएगा और काम शायद फिर भी न निपटें। यह विचार आते ही हमने अधूरे कामों को गोली मारने की सोची। लेकिन अचानक खयाल आया कि यह तो हिंसा हो जाएगी और आख़िरी समय में हिंसा ठीक नहीं। यह सोच अधूरे कामों को भाड़ में जाने का रास्ता दिखा दिया, जो पुराने लखनऊ की तरफ़ जाता था। अब दिल ने कहा कि चलते-चलते कुछ नेक काम कर लो। सुना है आख़िरी वक्त में की गई नेकी, पूरे जीवन की बदी पर भारी पड़ती है। यह विचार कर हम बैट्री रिक्शा में बैठकर गोमती के पास आ गए। आख़िर नेकी करने के बाद उसे दरिया में भी तो डालना होता है। दरिया की दशा बहुत ख़राब थी। उसमें प्लास्टिक, कचरे, मल-मूत्र के रूप में शहर वालों की नेकियां पहले से पटी पड़ी थीं। हम सोच में पड़ गए कि नेकी लाकर डालेंगे कहां। यहां तो जगह ही नहीं है। इतनी देर में दो घंटे और कम हो गए। तभी दो सिपाही अपनी तरफ़ आते दिखे। हम आख़िरी समय में पुलिस की सूरत देखने से बचना चाहते थे लेकिन तब तक वे पास आ गए। एक डंडा फटकारता हुआ बोला, "हौ हौ...चचा यहां क्या कर रहे हो?" "कुछ नहीं...बस ऐसे ही...नदी देखने आए थे।" हमने जवाब दिया। "काहे... इत्ती उमर हो गई...कभी नदी नहीं देखी!" दूसरे सिपाही ने हमें घूरते हुए कहा। उसके हाथ का डंडा भी अंगड़ाई लेने लगा। "हम सच कह रहे हैं...नदी ही देखने आए थे...देखिए कितनी गंदगी है।" "हमें तो लगतो है... ई ससुर गंदगी बढ़ाने आये हैं। चचा तुम्हारा डिब्बा कहां है?" "कैसा डिब्बा?" हमने घबराकर पूछा। "सरकार सफ़ाई कराए-कराए परेशान है...स्वच्छ भारत मिशन चलाए है...घर-घर शौचालय बनवा रही है...और तुम साले ससुर के नाती चले आए गंदगी करने"। एक सिपाही ज़मीन पर डंडा पटककर चिल्लाया तो दूसरा उसका साथ देते हुए बोला, "ले चलो साले को थाने...वहां इसे नदी नहीं समंदर दिखाएंगे।" हम डर से थर-थर कांपने लगे। लगा शायद यमदूत पुलिस की वर्दी पहनकर हमें लेने आ गए। सिपाही हमें थाने ले जाने पर अड़े थे। उनके चंगुल से छूटना ज़रूरी था। अचानक हमें अपनी जेब में पड़ी उस चिट्ठी का ध्यान आया। हमने उसे निकालकर एक सिपाही के हाथ में रख दिया। उसने बुरा सा मुंह बनाते हुए कहा, "ख़ाली सौ का नोट। चचा कुछ तो लिहाज करो...हम दो लोग हैं...बस 50-50...इतना रेट मत गिराओ।" अब चौंकने की हमारी बारी थी। मतलब वह चिट्ठी इन्हें सौ का नोट दिख रही है। खैर, इसके बाद वो नोट लेकर दोनों चले गए। हमने इत्मीनान की सांस ली। एक नेक काम तो संपन्न हुआ। घड़ी की सुइयां तेज़ी से भाग रही थीं। हमने सोचा एकाध नेक काम अपने परिवार वालों के लिए भी करते चलें। उन्हें अंजाम देने हम दूसरा टेंपो पकड़कर बैकुंठ धाम आ गए। वहां बड़ी भीड़ थी। चारों तरफ़ मुर्दे ही मुर्दे। हमें लगा यहां तो फुंकने में ही घंटों लग जाएंगे। कहो पुनर्जन्म हो जाए और लाश का नंबर न आए। बेटे और रिश्तेदार अलग कोसेंगे कि बुड्ढा कौन सी मनहूस घड़ी में मरा। ये विचार कर हमने अपने लिए सात मन लकड़ी फटाफट तुलवा कर किनारे रखवा दी और दुकानदार से कह दिया कि शाम को जब हम अर्थी पर आएं तो लड़कों को सप्रेम भेंट कर देना। अच्छा इंप्रेशन पड़ेगा। लकड़ी वाला क्या सोच रहा होगा, इसकी परवाह किए बिना हम लपककर डेथ सर्टिफिकेट बनवाने जन्म-मृत्यु कार्यालय में घुस गए। वहां कर्मचारी बिना शव देखे सर्टिफिकेट बनाने को तैयार नहीं था। उसे पांच सौ रुपए घूस देकर बड़ी मुश्किल से यकीन दिलवा पाए कि हम ही हैं 'भावी स्वर्गीय!' ये सब काम निपटाने में अंतिम समय करीब आ गया। आधा घंटा बचा तो हम ओला करके जल्दी से घर आ गए। किसी ने हम पर ध्यान नहीं दिया। हम ड्राइंग रूम में जमीन पर चादर बिछाकर लेट गए। सिरहाने गीता-रामायण रख ली। एक कंडा और दो अगरबत्ती भी जलाकर रख दीं। कोरम पूरा हो गया। अब सिर्फ़ हमें प्राण त्यागने थे। मगर असमंजस इस बात को लेकर था कि प्राण ख़ुद त्यागने होंगे या यमदूतों का इंतज़ार करना होगा। हमने इंतज़ार करने का निश्चय किया और आंखें बंद करके, मुंह में गोमती से लाया गंगाजल डालकर, 'राम नाम सत्य है' का जाप करने लगे। तभी यमदूत ने बुरी तरह झिंझोड़ा। आंखें खोलीं तो वही शास्त्र सम्मत अर्धांगिनी का दर्ज़ा प्राप्त खड़ी थीं। साथ-साथ चिल्ला भी रही थीं, "देखो अपने बाप की करतूत...पलंग के नीचे लेटे पता नहीं क्या-क्या बक रहे हैं। लाख कहा कि रात में गरिष्ठ खाना मत खाओ...लेकिन नहीं, करेंगे अपने मन की। कैसे-कैसे, उल्टे-सीधे सपने देखते हैं। अब तो इन्हें नूर मंज़िल जाकर जमा कर ही आओ।" हम हतप्रभ से इधर उधर ताकने लगे। उधर बड़ा बेटा मोबाइल से नूर मंज़िल का नंबर डायल कर रहा था। - कमल किशोर सक्सेना

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