अपना शहर जो दुर्भाग्य या सौभाग्य से ऐन बिहार की राजधानी के पड़ोस में है। इस शहर में लोग चलने के लिए प्राय: दो विधियों का प्रयोग करते हैं। एक - सड़क और दूसरे - गढ्डे। सड़क और गढ्डों का वही संबंध है जो छायावादी कवियों ने चोली और दामन तय कर दिया है। इसलिए दोनों को एक- दूसरे से जुदा करने पर वही दफा लगती है, जो लैला-मजनू, शीरी-फरहाद, रोमियो-जूलियट, सलीम-अनारकली, हीर-रांझा आदि प्रागैतिहासिक प्रेमी युगलों के खिलाफ साजिश रचने वालों पर लगी थी। फिर भी जुदा नहीं किया जा सका। तो नगर निगम किस खेत की मूली है। इसलिए जनता जब ज्यादा शोर मचाती है तो कुछ सड़कों बनाने के लिए निगम तोड़ देता है। अर्थात निर्माण के लिए विध्वंस। एक डान को मारने के लिए दूसरे को पैदा करना ही पड़ता है। यही सृष्टि का भी नियम है।
खैर, बात हो रही थी शहर की, जो दुर्भाग्य या सौभाग्य बिहार की राजधानी के पड़ोस में है। सवाल यह है कि शहर में लोग चलते कैसे हैं। जैसा मैंने ऊपर कहा कि शहर में चलने के लिए सर्वाधिक सुलभ साधन दो ही हैं- सड़क और गढ्डे। वो बात अलग है कि कुछ ज्ञान पिपासु अपनी जिज्ञासा शांत करने को मैनहोल या नाले का रुख भी कर लेते हैं।
कुछ शव के रूप में शहर को अपना अंतिम दर्शन देते हैं। बाकी इसकी जरूरत भी नहीं समझते और परिवार को मुआवजे के हवाले करके सीधे बैंकुठधाम की राह पकड़ लेते हैं। कुछ लोगों को लगता है कि उनकी आत्मा को दुर्घटना मे मरने के बाद ही शांति मिलेगी। अत: वे वही रास्ता अख्तियार कर लेते हैं। वैसे मरने के लिए बाढ़ और सूखा भी विकल्प हैं लेकिन काफी लोग इतना धैर्य नहीं रख पाते। आप ही बताइये कि जाड़े में मरने का मूड बनाने वाला व्यक्ति क्या अगली बरसात की राह देखेगा। वो भी भरोसा नहीं कि बरसात हो ही जाएगी।
हालांकि आत्मा को परमात्मा से मिलाने का काम हमारी पुलिस भी करती है लेकिन लोगों का उस पर विश्वास नहीं। फर्जी एनकाउंटर भले थम गए हों लेकिन 'अपराधी' को मारने पर किसी युग में प्रतिबंध नहीं रहा है। आज भी नहीं है। लेकिन कुछ लोग पिछड़े के पिछड़े ही बने रहना चाहते हैं। पुलिस के हाथों मरने में उनकी नानी मरती है।
बहरहाल, मेरे कहने का लब्बो-लुआब ये है कि सांसारिक माया-मोह से छुटकारा पाने को शहर की सड़कें और गडढे भी कम भूमिका नहीं निभाते। मेरे एक परिचित का करीब तीस वर्ष का अनुभव है नगर निगम का। वह उसके कर्मचारी नहीं हैं लेकिन मुकदमा लड़ते- लड़ते कानून और नियमों के पक्के जानकार हो गए हैं। उनका कहना है कि नगम के संविधान में सड़कों का प्रावधान तो है लेकिन गढ्डों का नहीं। शायद संविधान लिखने वालों ने गढ्डों की कल्पना नहीं की होगी। उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि भविष्य में कोई गढ्डा प्रधान युग आएगा, जिसमें शहर, मोहल्ला और सड़क क्या.. पूरे के पूरे देश को ही समा लेने की क्षमता होगी।
हमारे - आपके सौभाग्य से ये वहीं युग है। सड़क से लेकर विधानसभा तक गढ्डे ही गढ्डे हैं। अलग- अलग साइज और प्रकृत्ति के। शहर में यातायात भी सदा सुहागन है। गढ्डों के आसपास मौजूद सड़क के किसी प्रकार की हानि न पहुंचे, इसके लिए यातायात विभाग और थाना-चौकी भी हैं। इसके अलावा काफी अरसे से महसूस किया जा रहा था कि सड़कों और चौराहों पर जो यातायात संकेत के बोर्ड लगाए जाते हैं, वे शहर की फितरत से मेल नहीं खाते। इस शहर को ऐसे संकेतों की आवश्यकता है, जिसके लोग अभ्यस्त हैं। विभाग की सुविधा के लिए परिस्थितयों का उल्लेख मैं कर देता हूं। उनके लिए संकेत यातायात विभाग तय कर ले।
मुलाहिजा हो :-
* चौराहे पर पुलिस की जगह गाय बैठी है। कृपया उसके गोबर को क्षति पहुंचाये बिना सड़क पार करें।
* स्ट्रीट लाइट खराब है। लेकिन खंभे में करंट आता है। सावधान रहें।
* अगले मोड़ पर पिस्तौल- चाकू से लैस दो कार्यकर्ता लैस मिल सकते हैं। अपना भला- बुरा आप खुद सोच लें।
* सिपाही जी की तबियत ठीक नहीं है। इसलिए ट्रक वालों से निवेदन है कि खुले पैसे लेकर चाय की दुकान पर आ जाएं।
* चौराहे पर कुत्तों के वर्चस्व की जंग जारी है। और, अस्पताल में रैबीज के इंजेक्शन नहीं हैं।
* यहां उत्तम किस्म की नकली दारू हर समय मिलती है। चुनाव, रैलियों या विशेष अवसरों पर आर्डर देकर सप्लाई की व्यवस्था है।
* आगे जाम लगा है। तुरंत पीछे लौट जाएं वरना फिर पलट भी न सकेंगे।
* इस रोड पर विधायक निधि से अतिक्रमण किया गया है। उसे घूरें नहीं।
Saturday, April 24, 2010
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भाई कमल
ReplyDeleteआज आपका ब्लाग देखा। अच्छा लगा। ल्लागिंग की दुनियां में आपका स्वागत है। अब तक की सभी रचनाएं अच्छी हैं। उम्मीद है आगे भी कुछ अच्छा पढ़ने को मिलेगा।