Tuesday, April 20, 2010

थूक का महात्म्य

'थूक' एक प्रकृति प्रदत्त पदार्थ है और थूकना मनुष्य प्रदत्त आदत। 'थूक' का उत्पादन मनुष्यों और पशुओं दोनों प्राणियों में समान रूप से होता है। अभी ये तय नहीं हो सका है कि 'लार गिरना', 'थूक कर चाटना', 'थू-थू करना' या करवाना जैसे मुहावरे मनुष्यों की वजह से गढ़े गए या पशुओं की वजह से।
खैर, उत्पादन भले पशुओं में भी होता हो लेकिन इसका सर्वाधिक वितरण सर्वाधिक मनुष्यों में ही होता है। कुछ लोग इसका वितरण किए बिना बात तक नहीं कर पाते। इनके सामने खड़ा व्यक्ति या तो बार-बार अपना चेहरा रूमाल से पोंछता रहता है या फिर सामने वाले के जोरदार झापड़ रसीद कर देता है।
मुहावरे की दृष्टि से ये प्रक्रिया 'मुंह पर थूकना' की श्रेणी में आती है। लेकिन मुहावरे में चूंकि मुंह पर पड़ने वाले छींटों की मात्रा तय नहीं की गयी है, इसलिए ये प्रक्रिया आज तक गुमनामी की जिंदगी जी रही है। 'थूककर चाटना' एक अन्य मुहावरा है। इस मुहावरे में चूंकि पदार्थ का स्वाद स्पष्ट नहीं है, इसलिए इसे स्वांत: सुखाय की श्रेणी में मान लिया गया है।
राजनीति में थूककर चाटने वालों का सबसे ज्यादा महत्व है। बल्कि यूं कहें कि केवल राजनीति ही ऐसा क्षेत्र है, जहां थूकने और फिर चाटने की पूरी आजादी है। इसका प्रमाण है कि आज तक किसी भी राजनीतिक दल को थूकने या चाटने के लिए गठबंधन करते नहीं देखा गया। इसके लिए पूरी स्वतंत्रता दी गई है। आदमी कहीं भी कुल्ला भर- भरके थूक सकता है और विकास में अपना हाथ बंटा सकता है। सच कहा जाए तो राजनीति में थूकने और चाटने की असीम संभावनाएं हैं। मैनेजमेंट की भाषा में कहा जाए तो कामयाबी पाने की महत्वपूर्ण टिप।
बिहार एक खैनी प्रधान प्रदेश है। खैनी और थूक का चोली-दामन का साथ है। दूसरे शब्दों में खैनी को थूक फैक्ट्री का रा-मैटेरियल भी कहा जा सकता है। यदि मान लिया जाए कि सूबे में प्रतिदिन तीन मीट्रिक टन खैनी की खपत है तो निश्चित मानिये कि थूक का उत्पादन भी इससे कम कतई नहीं होगा। अब यदि राष्ट्रीय औसत निकाला जाए तो बिहार थूक उत्पादन में अग्रणी राज्यों में होगा।
लेकिन अफसोस कि तमाम खनिज संपदा की तरह ये संपदा भी समुचित योजनाओं के अभाव में बर्बाद हो रही है। सैकड़ों क्विंटल थूक चौराहों, गलियों, सरकारी कार्यालयों के कोनों, दीवारों, डस्टबिनों आदि में बर्बाद कर दिया जाता है। इसके अलावा हमारे प्रदेश का सैकड़ों टन थूक दूसरे प्रदेशों की धरती सींच रहा है। ये अपने संसाधनों की बर्बादी नहीं तो क्या है।
हर व्यक्ति को कहीं भी थूकने के लिए स्वतंत्र होना चाहिए। मुझे उन राज्यों या विदेशी सरकारों से सख्त नफरत है, जो थूकने पर जुर्माना वसूल लेती हैं। यह प्राकृतिक संपदा का अपमान ही नहीं, हमारी बरसों पुरानी आदत का दमन भी है। लेकिन खुशी की बात है कि हमारे प्रदेश में थूकने की पूरी आजादी है। कहीं भी थूक सकते हैं लेकिन इसके लिए सबसे माकूल जगह सड़क मानी गई है। .. क्योंकि वह अपनी जागीर होती है। उसे तोडि़ये, खोदिये, अतिक्रमण कीजिए, थूक की नदियां बहा दीजिए या कितना भी अत्याचार कीजिए, वह बेचारी चूं तक नहीं करती।
हां, सड़क पर थूकने वाले कभी- कभी गलतफहमियां अवश्य पैदा कर देते हैं। कुछ लोग इस डिजायन से थूकते हैं कि खड़े होकर देखने पर गिलट का रुपया लगता है। इस चक्कर में बाद में अपने हाथ चुपचाप पैंट से पोंछते नजर आते हैं। मेरे एक पड़ोसी को थूकने के बाद कुछ देर निहारने की आदत थी। पता नहीं वह उसमें क्या तलाशते थे जो उन्हें पूरे जीवन नहीं मिला और एक दिन अचानक उसी थूक को निहारते- निहारते उनकी आत्मा उसी में समाहित हो गई।
एक बात और। लहू का रंग भले एक होता हो लेकिन थूक का नहीं। काल-परिस्थिति और आदतों के अनुसार यह बदलता रहता है। जैसे तंबाकू खाने वाले व्यक्ति से आप दूध जैसे उजले थूक की कल्पना नहीं कर सकते। इसी विधि से लाल, हरे, नीले, चितकबरे, सिल्की सिल्वर, मून लाइट, गोल्डन सिल्वर आदि रंगों का थूक देखकर आप उसके जनक के बारे में काफी कुछ जान सकते हैं। गनीमत है कि भविष्यवक्ताओं तक अभी ये आइडिया नहीं पहुंचा है। वरना हर पैथेलाजी लैब में एक ज्योतिषी भी बैठा नजर आने लगेगा।
लार को थूक की छोटी बहन कहा जा सकता है। जो अक्सर दूसरों की सुख-समृद्धि देखकर खुद-ब-खुद चू जाती है। खैर, बात थूक की चल रही थी। इसी थूक की वजह से कई बार प्रदेश मुसीबतों में पड़ते-पड़ते बचा है। घटना छठ के आसपास की है। एक नेता जी ने गंगा भ्रमण के दौरान उसमें थूक दिया। गंगा मैया को थूक अर्पण की इस घटना पर कड़ी प्रतिक्रियाएं आई। किसी ने थूक का बदला थूक से लेने की प्रतिज्ञा कर डाली। तो कोई नेता जी के थूक के कतरे गंगा जी से ढुंढवाकर उसका डीएनए टेस्ट करवाने पर अड़ गया। जिनकी समझ में कुछ नहीं आया। उन्होंने गंगा जी की ओर मुंह करके जोरदार प्रणाम किया और जोर से खंखारकर वहंीं रेत पर थूक दिया। ताकि सनद रहे और आने वाली बरसात में रेत में सूख चुका थूक नदी के पानी में मिलकर अमृत बन जाए। एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने की जितनी विधियो हो सकती थीं, सब अपना ली गई।
कहने का मतलब सब हुआ लेकिन बेचारी गंगा मैया के विचार जानने की कोशिश किसी ने नहीं की। मैली गंगा का उलाहना तो सभी देते हैं किंतु अपने हिस्से की गंदगी को उसमें बहाने से गुरेज नहीं करते। कहते हैं कि गंगाजल में मिलकर हर चीज पूज्य और पवित्र हो जाती है। अत: भविष्य में यदि वैज्ञानिकों के हाथ नेता जी के थूक के अवशेष लग जाएं तो उसे पवित्र मानकर उसकी प्राण प्रतिष्ठा करवा दी जाए। मगर इस मुद्दे पर एक- दूसरे की थू-थू से बिल्कुल तोबा कर ली जाए। थोड़ा कहे को ज्यादा समझिएगा। नो स्पिटिंग प्लीज!

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