Friday, February 26, 2010

जूता चिंतन

वक्त का तकाजा है कि सबसे निचले स्तर पर पड़ी वस्तु भी ब्रांडिंग चाहती है। अपने को मार्केट में अपडेट रखना चाहती है। सुंदर दिखना चाहती है ताकि हर कोई उसकी तरफ देखे। उसे पसंद करे। उसकी चर्चा करे।खुद को धरा का सबसे खूबसूरत समझने की गलतफहमी कई लोगों को होती है। पिछले दिनों मेरे जूतों को हो गयी। वे पिछले कई हफ्ते से कई ग्राम धूल का कंबल लपेटे मेरी ओर कातर निगाहों से देख रहे थे कि शायद मुझे उनकी हालत पर तरस आ जाए। तरस आया भी। जूतों के बुद्धि होती तो तरस बुद्धि पर आता। उन बेचारों को नहीं मालूम कि वे कितने मासूम हैं। ये नहीं जानते कि गंदगी- सुंदरता सब छलावा है। ये शरीर नश्वर है। असली चीज है आत्मा। उसकी सफाई जरूरी है। रोज। हो सके तो कई बार। लेकिन जूतों के आत्मा होती तो वे जूते ही क्यों होते। उनकी नियति पैरों में ही रहना है लिहाजा उनसे बहुत अपेक्षा नहीं रखी जा सकती। वैसे भी ये सारी बातें उनकी वेव लेंग्थ से बाहर थीं। हां, उनके जुबान होती तो शायद यही कहते- 'खुद तो कई- कई दिन नहाते नहीं हो। हमको भी अपने जैसा बना रखा है। कान खोल कर सुन लो। लेकिन कान भी कैसे खुलेंगे। उनकी भी तो कई साल से सफाई नहीं हुई। पता नहीं कितना कचरा निकले। नगर निगम के मैनहोल की तरह बरसों से जाम पड़े हैं।' अब मुझे जूतों के तेवरों से विद्रोह की बू आने लगी। जिसके भविष्य में किसी आंदोलन की सुगबुगसहट भी मैंने महसूस की। मामला सीरियस लग रहा था। दर्शन और अध्यात्म के जरिये जूतों को समझाना नामुमकिन था। उनकी ओर देखने की मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी। डर था कि कहीं पैरों से निकलकर वे मेरे सिर को डीजे का स्टेज न बना लें। भलाई इसी में थी कि फौरन किसी लेदर एक्सपर्ट को कांटेक्ट किया जाए। हिंदी में बोले तो चर्म शास्त्री। वैसे ये विशेषज्ञ जगह- जगह सड़क के किनारे बैठे आमतौर पर मिल जाते हैं लेकिन जिस दिन मैं खोजने निकला तो दो किलोमीटर तक नहीं मिले। मन में संशय भी हुआ कि कहीं प्रदेश का वास्तव में इतना विकास तो नहीं हो गया कि यहां के लोगों ने पालिश करने या जूतों की रीपेयरिंग का काम छोड़ दिया हो। सब के सब आईएएस, एमबीए, बैंक कंपटीशन आदि की तैयारियों में जुटे हों। विकास की दृष्टि ये यह अच्छी कल्पना थी लेकिन वास्तविकता के धरातल पर बहुत भयानक। जरा सोचिये अगर सारे लोग पढ़- लिख जाएं। नौकरी करने लगें। समाज तरक्की कर जाए। गरीबी जैसी बातें इतिहास की पुस्तकों में दर्ज कर दी जाएं। तो क्या होगा। भाईसाहब कदम- कदम पर परेशानियां पेश आएंगी। भूखे मर जाएंगे कोई चाट- पकौड़ी वाला नहीं मिलेगा। मकान बनवाना होगा। मजदूर नहीं मिलेगा। मार्केट में खरीदारी करने के बाद सामान उठाकर कार तक पहुंचाने वाला नहीं मिलेगा। गाड़ी खराब हो जाएगी तो रिक्शा नहीं मिलेगा। कहां तक गिनाउं। पहली बार समझ में आया कि समाज को सुव्यवस्थित तरीके से चलाने के लिए गरीब और गरीबी कितने आवश्यक हैं। खैर, चर्म शिल्पी को खोजते- खोजते मैं अब तक पांच किलोमीटर चल चुका था। अब तक पूरे जीवन में टोटल इतना मार्निग वाक मैंने नहीं किया था। लेकिन जूतों की मांगें पूरी न करने पर होली पर अनहोनी का पूरा- पूरा अंदेशा था। अचानक मेरी मायूस निगाहें चमक उठीं। मन मयूर नाच उठा। दिल में शहनाइयां बजने लगीं। पूरा कलयुग अभी नहीं आया। कुछ धर्म अभी बाकी है। सड़क के सामने वाली पट्टी पर एक चर्म शिल्पी (प्राचीन काल में इन्हें रैदास के नाम से जाना जाता था।) नजर आया। मैं लपककर उसके पास पहुंचा। वह एक फटी चप्पल पर थीसिस लिख रहा था। मुझे आशा था कि कस्टमर देखकर वह अदब से उठकर खड़ा होगा और मेरा स्वागत करेगा। लेकिन वह चुपचाप अपने काम में जुटा रहा। मुझे यकीन हो गया कि समाज को अपने विकास की कोई जल्दी नहीं है। जिसमें कुछ लोगों की मानसिकता है कि आपकी गरज हो तो हमारे घर में संडास बनवा दें वरना हम तो डिब्बा लेकर बरसों से खेत जा रहे हैं.. आगे भी जाते रहेंगे। वह अपने काम में जुटा रहा। हारकर मैंने ही पहल की- 'जूतों में पालिश हो जाएगी?' अबकी पहली बार उसने नजर उठाई। एक बार मुझे देखा। दूसरी बार जूतों की तरफ। जैसे तसल्ली कर लेना चाहता हो कि जूते मेरे अपने ही हैं या मंदिर के बाहर से लाए गए हैं। जूतों से ज्यादा देर वह मेरा चेहरा ताकता रहा। शायद उस पर जूतों से ज्यादा धूल थी। फिर उसने जोरों से खंखारा और करीब डेढ़ सौ ग्राम बलगम पीछे मुंह करके धरती मैया को समर्पित कर दिया। फिर मुझसे मुखातिब होता हुआ बोला- 'जूतों की रसीद है? अबकी मैं चौंका। मैं अपनी निगाहों को जब तक प्रश्नवाचक पुट दे पाता, उससे पहले ही वह बोला- 'ऐसा है सर, हम कोई गलत काम नहीं करते। सच्चे आदमी हैं, काम भी सच्चा ही करते हैं। रसीद नहीं है तो पालिश नहीं होगी।''यार, जबसे मेरे पैर पैदा हुए हैं, तबसे मैं जूता-चप्पल पहन रहा हूं। बारात वगैरह में तो पालिश फ्री में करवा लेता हूं फिर भी कभी इमरजेंसी पालिश करवानी ही पड़ जाती है। आज तक किसी ने रसीद नहीं मांगी। इस बजट में भी कोई ऐसा कानून नहीं बनाया गया है। फिर काहे की रसीद!'उसने मुझे फिर घूरा। इस बार उसकी नजर वैसी थी जैसी किसी दरोगा की सड़क पर घूमते आवारा आदमी के लिए होती है। फिर बोला- 'देखिये गर्द- गुबार में कुछ पता नहीं चल रहा लेकिन चेहरे से आप पढ़े- लिखे मालूम पड़ रहे हैं। खैर, मैं आपको क्लियर कर दूं कि आजकल किसी का कोई भरोसा नहीं। कौन साला आतंकवादी निकल आए। कल पुलिस हमको परेशान करे कि तुम्हारी ही दुकान से पालिश कराई थी। इसलिए कृपया या तो जूते की रसीद दिखायें या अपनी आइडेंटटी का कोई प्रूफ। पैन कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस, चुनाव पहचान पत्र, राशन कार्ड या बिजली का बिल इनमें से कुछ है आपके पास!' (क्रमश:)

Sunday, February 21, 2010

जय राम जी की!

प्रिय पाठकों!

काफी दिनों से इच्छा थी कि मैं भी 'ब्लॉगबाजी' की जंग में शामिल हो जाउं। दरअसल कशमकश इस बात को लेकर थी कि ब्लॉग बना भी लूं तो उसमें लिखूंगा क्या। इंटरनेट की अनंत दुनिया। उसमें ब्लॉगबाजों की जबर्दस्त भीड़। इस भीड़ में भी बड़े- बड़े नाम। जिनके बारे में पढ़ने के लिए लोगों में होड़ होती है। मीडिया जिनके ब्लॉगों में लिखी बातों को बढ़कर बढि़या खबरें बना लेता है। ऐसी जंग में मेरे जैसा अदना आदमी क्या हैसियत रखता है, जो मैं ब्लॉग-व्लॉग का चक्कर पालूं। ये उधेड़बुन कई महीने चलती रही।

इस बीच मेरे कई मित्रों ने अपने- अपने ब्लॉग बना लिए और मुझे सीना तानकर बताने लगे कि भइया हम भी ब्लॉगियर हो गये हैं। ऐसे - ऐसे लोग जो शायद हिन्दी या अंग्रेजी में सही- सही 'ब्लॉग' शब्द न लिख सकें। ऐसे- ऐसे मूर्धन्यों ने जब ब्लॉग बना लिए तो मैंने सोचा कि कमल किशोर सक्सेना अगर तुम बिना ब्लॉग बनाये मर गये तो तुम्हारा ये जन्म तो गया ही। अगले पर भी खतरा है क्योंकि जब तक तुम्हारी पीढ़ी के पुनर्जन्म लेने का नंबर आयेगा, तब तक शायद भगवान भी अपने एसाइनमेंट ब्लॉग से करने लगें। बस ये ख्याल आते ही मैंने उठाया कम्प्यूटर का माउस और थोड़ी देर तिडि़क-तड़ाक करने के बाद एक ब्लॉग गढ़ डाला। ईश्वर आपको मेरा ब्लॉग झेलने की शक्ति दे।

चिंता न करें।

समय-समय पर मुलाकात होती रहेगी।

फिर मिलेंगे किसी दिन!