Monday, April 26, 2010
Saturday, April 24, 2010
चंद नये यातायात संकेत
अपना शहर जो दुर्भाग्य या सौभाग्य से ऐन बिहार की राजधानी के पड़ोस में है। इस शहर में लोग चलने के लिए प्राय: दो विधियों का प्रयोग करते हैं। एक - सड़क और दूसरे - गढ्डे। सड़क और गढ्डों का वही संबंध है जो छायावादी कवियों ने चोली और दामन तय कर दिया है। इसलिए दोनों को एक- दूसरे से जुदा करने पर वही दफा लगती है, जो लैला-मजनू, शीरी-फरहाद, रोमियो-जूलियट, सलीम-अनारकली, हीर-रांझा आदि प्रागैतिहासिक प्रेमी युगलों के खिलाफ साजिश रचने वालों पर लगी थी। फिर भी जुदा नहीं किया जा सका। तो नगर निगम किस खेत की मूली है। इसलिए जनता जब ज्यादा शोर मचाती है तो कुछ सड़कों बनाने के लिए निगम तोड़ देता है। अर्थात निर्माण के लिए विध्वंस। एक डान को मारने के लिए दूसरे को पैदा करना ही पड़ता है। यही सृष्टि का भी नियम है।
खैर, बात हो रही थी शहर की, जो दुर्भाग्य या सौभाग्य बिहार की राजधानी के पड़ोस में है। सवाल यह है कि शहर में लोग चलते कैसे हैं। जैसा मैंने ऊपर कहा कि शहर में चलने के लिए सर्वाधिक सुलभ साधन दो ही हैं- सड़क और गढ्डे। वो बात अलग है कि कुछ ज्ञान पिपासु अपनी जिज्ञासा शांत करने को मैनहोल या नाले का रुख भी कर लेते हैं।
कुछ शव के रूप में शहर को अपना अंतिम दर्शन देते हैं। बाकी इसकी जरूरत भी नहीं समझते और परिवार को मुआवजे के हवाले करके सीधे बैंकुठधाम की राह पकड़ लेते हैं। कुछ लोगों को लगता है कि उनकी आत्मा को दुर्घटना मे मरने के बाद ही शांति मिलेगी। अत: वे वही रास्ता अख्तियार कर लेते हैं। वैसे मरने के लिए बाढ़ और सूखा भी विकल्प हैं लेकिन काफी लोग इतना धैर्य नहीं रख पाते। आप ही बताइये कि जाड़े में मरने का मूड बनाने वाला व्यक्ति क्या अगली बरसात की राह देखेगा। वो भी भरोसा नहीं कि बरसात हो ही जाएगी।
हालांकि आत्मा को परमात्मा से मिलाने का काम हमारी पुलिस भी करती है लेकिन लोगों का उस पर विश्वास नहीं। फर्जी एनकाउंटर भले थम गए हों लेकिन 'अपराधी' को मारने पर किसी युग में प्रतिबंध नहीं रहा है। आज भी नहीं है। लेकिन कुछ लोग पिछड़े के पिछड़े ही बने रहना चाहते हैं। पुलिस के हाथों मरने में उनकी नानी मरती है।
बहरहाल, मेरे कहने का लब्बो-लुआब ये है कि सांसारिक माया-मोह से छुटकारा पाने को शहर की सड़कें और गडढे भी कम भूमिका नहीं निभाते। मेरे एक परिचित का करीब तीस वर्ष का अनुभव है नगर निगम का। वह उसके कर्मचारी नहीं हैं लेकिन मुकदमा लड़ते- लड़ते कानून और नियमों के पक्के जानकार हो गए हैं। उनका कहना है कि नगम के संविधान में सड़कों का प्रावधान तो है लेकिन गढ्डों का नहीं। शायद संविधान लिखने वालों ने गढ्डों की कल्पना नहीं की होगी। उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि भविष्य में कोई गढ्डा प्रधान युग आएगा, जिसमें शहर, मोहल्ला और सड़क क्या.. पूरे के पूरे देश को ही समा लेने की क्षमता होगी।
हमारे - आपके सौभाग्य से ये वहीं युग है। सड़क से लेकर विधानसभा तक गढ्डे ही गढ्डे हैं। अलग- अलग साइज और प्रकृत्ति के। शहर में यातायात भी सदा सुहागन है। गढ्डों के आसपास मौजूद सड़क के किसी प्रकार की हानि न पहुंचे, इसके लिए यातायात विभाग और थाना-चौकी भी हैं। इसके अलावा काफी अरसे से महसूस किया जा रहा था कि सड़कों और चौराहों पर जो यातायात संकेत के बोर्ड लगाए जाते हैं, वे शहर की फितरत से मेल नहीं खाते। इस शहर को ऐसे संकेतों की आवश्यकता है, जिसके लोग अभ्यस्त हैं। विभाग की सुविधा के लिए परिस्थितयों का उल्लेख मैं कर देता हूं। उनके लिए संकेत यातायात विभाग तय कर ले।
मुलाहिजा हो :-
* चौराहे पर पुलिस की जगह गाय बैठी है। कृपया उसके गोबर को क्षति पहुंचाये बिना सड़क पार करें।
* स्ट्रीट लाइट खराब है। लेकिन खंभे में करंट आता है। सावधान रहें।
* अगले मोड़ पर पिस्तौल- चाकू से लैस दो कार्यकर्ता लैस मिल सकते हैं। अपना भला- बुरा आप खुद सोच लें।
* सिपाही जी की तबियत ठीक नहीं है। इसलिए ट्रक वालों से निवेदन है कि खुले पैसे लेकर चाय की दुकान पर आ जाएं।
* चौराहे पर कुत्तों के वर्चस्व की जंग जारी है। और, अस्पताल में रैबीज के इंजेक्शन नहीं हैं।
* यहां उत्तम किस्म की नकली दारू हर समय मिलती है। चुनाव, रैलियों या विशेष अवसरों पर आर्डर देकर सप्लाई की व्यवस्था है।
* आगे जाम लगा है। तुरंत पीछे लौट जाएं वरना फिर पलट भी न सकेंगे।
* इस रोड पर विधायक निधि से अतिक्रमण किया गया है। उसे घूरें नहीं।
खैर, बात हो रही थी शहर की, जो दुर्भाग्य या सौभाग्य बिहार की राजधानी के पड़ोस में है। सवाल यह है कि शहर में लोग चलते कैसे हैं। जैसा मैंने ऊपर कहा कि शहर में चलने के लिए सर्वाधिक सुलभ साधन दो ही हैं- सड़क और गढ्डे। वो बात अलग है कि कुछ ज्ञान पिपासु अपनी जिज्ञासा शांत करने को मैनहोल या नाले का रुख भी कर लेते हैं।
कुछ शव के रूप में शहर को अपना अंतिम दर्शन देते हैं। बाकी इसकी जरूरत भी नहीं समझते और परिवार को मुआवजे के हवाले करके सीधे बैंकुठधाम की राह पकड़ लेते हैं। कुछ लोगों को लगता है कि उनकी आत्मा को दुर्घटना मे मरने के बाद ही शांति मिलेगी। अत: वे वही रास्ता अख्तियार कर लेते हैं। वैसे मरने के लिए बाढ़ और सूखा भी विकल्प हैं लेकिन काफी लोग इतना धैर्य नहीं रख पाते। आप ही बताइये कि जाड़े में मरने का मूड बनाने वाला व्यक्ति क्या अगली बरसात की राह देखेगा। वो भी भरोसा नहीं कि बरसात हो ही जाएगी।
हालांकि आत्मा को परमात्मा से मिलाने का काम हमारी पुलिस भी करती है लेकिन लोगों का उस पर विश्वास नहीं। फर्जी एनकाउंटर भले थम गए हों लेकिन 'अपराधी' को मारने पर किसी युग में प्रतिबंध नहीं रहा है। आज भी नहीं है। लेकिन कुछ लोग पिछड़े के पिछड़े ही बने रहना चाहते हैं। पुलिस के हाथों मरने में उनकी नानी मरती है।
बहरहाल, मेरे कहने का लब्बो-लुआब ये है कि सांसारिक माया-मोह से छुटकारा पाने को शहर की सड़कें और गडढे भी कम भूमिका नहीं निभाते। मेरे एक परिचित का करीब तीस वर्ष का अनुभव है नगर निगम का। वह उसके कर्मचारी नहीं हैं लेकिन मुकदमा लड़ते- लड़ते कानून और नियमों के पक्के जानकार हो गए हैं। उनका कहना है कि नगम के संविधान में सड़कों का प्रावधान तो है लेकिन गढ्डों का नहीं। शायद संविधान लिखने वालों ने गढ्डों की कल्पना नहीं की होगी। उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि भविष्य में कोई गढ्डा प्रधान युग आएगा, जिसमें शहर, मोहल्ला और सड़क क्या.. पूरे के पूरे देश को ही समा लेने की क्षमता होगी।
हमारे - आपके सौभाग्य से ये वहीं युग है। सड़क से लेकर विधानसभा तक गढ्डे ही गढ्डे हैं। अलग- अलग साइज और प्रकृत्ति के। शहर में यातायात भी सदा सुहागन है। गढ्डों के आसपास मौजूद सड़क के किसी प्रकार की हानि न पहुंचे, इसके लिए यातायात विभाग और थाना-चौकी भी हैं। इसके अलावा काफी अरसे से महसूस किया जा रहा था कि सड़कों और चौराहों पर जो यातायात संकेत के बोर्ड लगाए जाते हैं, वे शहर की फितरत से मेल नहीं खाते। इस शहर को ऐसे संकेतों की आवश्यकता है, जिसके लोग अभ्यस्त हैं। विभाग की सुविधा के लिए परिस्थितयों का उल्लेख मैं कर देता हूं। उनके लिए संकेत यातायात विभाग तय कर ले।
मुलाहिजा हो :-
* चौराहे पर पुलिस की जगह गाय बैठी है। कृपया उसके गोबर को क्षति पहुंचाये बिना सड़क पार करें।
* स्ट्रीट लाइट खराब है। लेकिन खंभे में करंट आता है। सावधान रहें।
* अगले मोड़ पर पिस्तौल- चाकू से लैस दो कार्यकर्ता लैस मिल सकते हैं। अपना भला- बुरा आप खुद सोच लें।
* सिपाही जी की तबियत ठीक नहीं है। इसलिए ट्रक वालों से निवेदन है कि खुले पैसे लेकर चाय की दुकान पर आ जाएं।
* चौराहे पर कुत्तों के वर्चस्व की जंग जारी है। और, अस्पताल में रैबीज के इंजेक्शन नहीं हैं।
* यहां उत्तम किस्म की नकली दारू हर समय मिलती है। चुनाव, रैलियों या विशेष अवसरों पर आर्डर देकर सप्लाई की व्यवस्था है।
* आगे जाम लगा है। तुरंत पीछे लौट जाएं वरना फिर पलट भी न सकेंगे।
* इस रोड पर विधायक निधि से अतिक्रमण किया गया है। उसे घूरें नहीं।
Wednesday, April 21, 2010
जलजमाव - गंदगी पर उच्च स्तरीय वैज्ञानिक विश्लेषण
शहर की गंदगी अब एक तरह से ब्रांड बन चुकी है। चैनल वाले उसे इतने ऐंगल से घुमा- घुमाकर दिखा चुके हैं कि अब गंदगी का सारा ग्लैमर खत्म हो चुका है। इतने मनोयोग से शायद फैशन परेड का कवरेज भी नहीं करते होंगे। खैर, इधर सुनने में आया है कि गंदगी से अब सरकार, विपक्ष, अधिकारी और पीडि़तों से लेकर नॉन पीडि़तों तक के सब्र का पैमाना भर चुका है। यही नहीं बरसों पूर्व स्वर्गीय हो चुके स्वनामधन्य वैज्ञानिक भी इस गंदगी से चिंतित हैं।
पिछले दिनों इन वैज्ञानिकों की आत्माओं का एक अखिल ब्रह्मांड सम्मेलन अंतरिक्ष के गांधी मैदान में हुआ। सम्मेलन में मुजफ्फरपुर की गंदगी, अतिक्रमण, वसूली, बिजली, पानी, कूड़ा- कचरा, जलजमाव, अस्पताल आदि समस्याओं पर भी विचार किया गया। चूंकि ये विश्लेषण चोटी के वैज्ञानिकों द्वारा किया गया, इसलिए इसे 'चोटी का वैज्ञानिक विश्लेषण' नाम दिया गया।
महान वैज्ञानिक आइंसटीन का मानना था कि मई के महीने में साढ़े तीन सौ प्रकाश वर्ष दूर स्थित आकाशगंगा के उल्कापिंड धरती पर अस्सी डिग्री देशांतर से दशमलव पंद्रह मिलीमीटर ईस्ट में गिरते हैं। ये जगह ठीक वहां है, जहां अघोरिया बाजार का नाला गिरता है। लेकिन दिखता नहीं क्योंकि उस पर अतिक्रमण किया गया है। अत: जब तक तीन अरब साल से जारी उल्कापिंडों की इस बारिश को कर्क रेखा से पौने पांच सौ वर्ग माइक्रोमीटर देशांतर में शिफ्ट नहीं किया जाएगा, तब तक कल्याणी चौक के जाम की समस्या का समाधान नहीं हो सकता।
ये सुनकर आर्कमिडीज की आत्मा को क्रोध आ गया। वह बिगड़कर बोली- 'जलजमाव का मुझसे ज्यादा तजुर्बा है आपको। मैं तो डिक्लेयर्ड साइंटिस्ट ही वहीं हुआ।' खैर, दादा आर्कमिडीज ने जो फार्मूला बताया, उसके अनुसार जलजमाव प्रभावित क्षेत्रों की टोटल गंदगी को नालों की सिल्ट में जोड़ने के बाद उसमें नगर निगम के कुल कर्मचारियों की संख्या का गुणा करने पर जो संख्या ज्ञात होगी, उसमें अघोरिया बाजार के आयतन का भाग दे दें। इस भागफल और भारत के अंतरिक्ष भाग्यफल में जो अनुपात है, उससे क्षेत्र की कुल गंदगी का पता लगाया जा सकता है। और तब ही इसका समाधान हो सकता है।
गुरुत्वाकर्षण के नियम यदि न्यूटन ने खुद न बनाये होते तो इस वक्त वहां दरोगा जी फौजदारी का मुकदमा लिख रहे होते। बात ही कुछ ऐसी कही थी आर्कमिडीज ने, जिसे सुनकर न्यूटन का खून खौलने की इजाजत मांगने लगा। आर्कमिडीज का फार्मूला उन्होंने सुना। एकदम असहमत थे उससे। उनके हिसाब से भारत का अंतरिक्ष भाग्यफल और अघोरिया बाजार की गंदगी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सर आइजक का मानना था कि ये सब क्रिया की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप है। यदि अघोरिया बाजार को उसी तरह पलटा जा सकता, जिस तरह पैजामा सीधा करके पहना जाता है तो निश्चित रूप से वहां पांच अरब साल ईसा पूर्व हुए जलजमाव के निशान मिल जाएंगे। वर्तमान संकट तो तत्कालीन दमन की प्रतिक्रिया भर है। हालांकि दुनिया को गति के नियमों से परिचित कराने वाला महान वैज्ञानिक इस बात पर अवश्य हैरान था कि नगर निगम के कार्य की गति कौन से नियम से प्रतिपादित होती है।
इसके बाद सम्मेलन में गैलीलियो, राबर्ट बंधु, मार्कोनी, ग्राहम बेल, वगैरह- वगैरह ने भी अपने- अपने शोधपत्र पढ़े। जिनसे निष्कर्ष निकला कि जब तक शहर के आपेक्षिक घनत्व और नगर निगम की आद्रता की रासायनिक प्रतिक्रिया होती रहेगी, तब तक इस समस्या का समाधान निकलना मुश्किल है। मुख्यमंत्री कर लें तो भले कर लें।
पिछले दिनों इन वैज्ञानिकों की आत्माओं का एक अखिल ब्रह्मांड सम्मेलन अंतरिक्ष के गांधी मैदान में हुआ। सम्मेलन में मुजफ्फरपुर की गंदगी, अतिक्रमण, वसूली, बिजली, पानी, कूड़ा- कचरा, जलजमाव, अस्पताल आदि समस्याओं पर भी विचार किया गया। चूंकि ये विश्लेषण चोटी के वैज्ञानिकों द्वारा किया गया, इसलिए इसे 'चोटी का वैज्ञानिक विश्लेषण' नाम दिया गया।
महान वैज्ञानिक आइंसटीन का मानना था कि मई के महीने में साढ़े तीन सौ प्रकाश वर्ष दूर स्थित आकाशगंगा के उल्कापिंड धरती पर अस्सी डिग्री देशांतर से दशमलव पंद्रह मिलीमीटर ईस्ट में गिरते हैं। ये जगह ठीक वहां है, जहां अघोरिया बाजार का नाला गिरता है। लेकिन दिखता नहीं क्योंकि उस पर अतिक्रमण किया गया है। अत: जब तक तीन अरब साल से जारी उल्कापिंडों की इस बारिश को कर्क रेखा से पौने पांच सौ वर्ग माइक्रोमीटर देशांतर में शिफ्ट नहीं किया जाएगा, तब तक कल्याणी चौक के जाम की समस्या का समाधान नहीं हो सकता।
ये सुनकर आर्कमिडीज की आत्मा को क्रोध आ गया। वह बिगड़कर बोली- 'जलजमाव का मुझसे ज्यादा तजुर्बा है आपको। मैं तो डिक्लेयर्ड साइंटिस्ट ही वहीं हुआ।' खैर, दादा आर्कमिडीज ने जो फार्मूला बताया, उसके अनुसार जलजमाव प्रभावित क्षेत्रों की टोटल गंदगी को नालों की सिल्ट में जोड़ने के बाद उसमें नगर निगम के कुल कर्मचारियों की संख्या का गुणा करने पर जो संख्या ज्ञात होगी, उसमें अघोरिया बाजार के आयतन का भाग दे दें। इस भागफल और भारत के अंतरिक्ष भाग्यफल में जो अनुपात है, उससे क्षेत्र की कुल गंदगी का पता लगाया जा सकता है। और तब ही इसका समाधान हो सकता है।
गुरुत्वाकर्षण के नियम यदि न्यूटन ने खुद न बनाये होते तो इस वक्त वहां दरोगा जी फौजदारी का मुकदमा लिख रहे होते। बात ही कुछ ऐसी कही थी आर्कमिडीज ने, जिसे सुनकर न्यूटन का खून खौलने की इजाजत मांगने लगा। आर्कमिडीज का फार्मूला उन्होंने सुना। एकदम असहमत थे उससे। उनके हिसाब से भारत का अंतरिक्ष भाग्यफल और अघोरिया बाजार की गंदगी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सर आइजक का मानना था कि ये सब क्रिया की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप है। यदि अघोरिया बाजार को उसी तरह पलटा जा सकता, जिस तरह पैजामा सीधा करके पहना जाता है तो निश्चित रूप से वहां पांच अरब साल ईसा पूर्व हुए जलजमाव के निशान मिल जाएंगे। वर्तमान संकट तो तत्कालीन दमन की प्रतिक्रिया भर है। हालांकि दुनिया को गति के नियमों से परिचित कराने वाला महान वैज्ञानिक इस बात पर अवश्य हैरान था कि नगर निगम के कार्य की गति कौन से नियम से प्रतिपादित होती है।
इसके बाद सम्मेलन में गैलीलियो, राबर्ट बंधु, मार्कोनी, ग्राहम बेल, वगैरह- वगैरह ने भी अपने- अपने शोधपत्र पढ़े। जिनसे निष्कर्ष निकला कि जब तक शहर के आपेक्षिक घनत्व और नगर निगम की आद्रता की रासायनिक प्रतिक्रिया होती रहेगी, तब तक इस समस्या का समाधान निकलना मुश्किल है। मुख्यमंत्री कर लें तो भले कर लें।
Tuesday, April 20, 2010
थूक का महात्म्य
'थूक' एक प्रकृति प्रदत्त पदार्थ है और थूकना मनुष्य प्रदत्त आदत। 'थूक' का उत्पादन मनुष्यों और पशुओं दोनों प्राणियों में समान रूप से होता है। अभी ये तय नहीं हो सका है कि 'लार गिरना', 'थूक कर चाटना', 'थू-थू करना' या करवाना जैसे मुहावरे मनुष्यों की वजह से गढ़े गए या पशुओं की वजह से।
खैर, उत्पादन भले पशुओं में भी होता हो लेकिन इसका सर्वाधिक वितरण सर्वाधिक मनुष्यों में ही होता है। कुछ लोग इसका वितरण किए बिना बात तक नहीं कर पाते। इनके सामने खड़ा व्यक्ति या तो बार-बार अपना चेहरा रूमाल से पोंछता रहता है या फिर सामने वाले के जोरदार झापड़ रसीद कर देता है।
मुहावरे की दृष्टि से ये प्रक्रिया 'मुंह पर थूकना' की श्रेणी में आती है। लेकिन मुहावरे में चूंकि मुंह पर पड़ने वाले छींटों की मात्रा तय नहीं की गयी है, इसलिए ये प्रक्रिया आज तक गुमनामी की जिंदगी जी रही है। 'थूककर चाटना' एक अन्य मुहावरा है। इस मुहावरे में चूंकि पदार्थ का स्वाद स्पष्ट नहीं है, इसलिए इसे स्वांत: सुखाय की श्रेणी में मान लिया गया है।
राजनीति में थूककर चाटने वालों का सबसे ज्यादा महत्व है। बल्कि यूं कहें कि केवल राजनीति ही ऐसा क्षेत्र है, जहां थूकने और फिर चाटने की पूरी आजादी है। इसका प्रमाण है कि आज तक किसी भी राजनीतिक दल को थूकने या चाटने के लिए गठबंधन करते नहीं देखा गया। इसके लिए पूरी स्वतंत्रता दी गई है। आदमी कहीं भी कुल्ला भर- भरके थूक सकता है और विकास में अपना हाथ बंटा सकता है। सच कहा जाए तो राजनीति में थूकने और चाटने की असीम संभावनाएं हैं। मैनेजमेंट की भाषा में कहा जाए तो कामयाबी पाने की महत्वपूर्ण टिप।
बिहार एक खैनी प्रधान प्रदेश है। खैनी और थूक का चोली-दामन का साथ है। दूसरे शब्दों में खैनी को थूक फैक्ट्री का रा-मैटेरियल भी कहा जा सकता है। यदि मान लिया जाए कि सूबे में प्रतिदिन तीन मीट्रिक टन खैनी की खपत है तो निश्चित मानिये कि थूक का उत्पादन भी इससे कम कतई नहीं होगा। अब यदि राष्ट्रीय औसत निकाला जाए तो बिहार थूक उत्पादन में अग्रणी राज्यों में होगा।
लेकिन अफसोस कि तमाम खनिज संपदा की तरह ये संपदा भी समुचित योजनाओं के अभाव में बर्बाद हो रही है। सैकड़ों क्विंटल थूक चौराहों, गलियों, सरकारी कार्यालयों के कोनों, दीवारों, डस्टबिनों आदि में बर्बाद कर दिया जाता है। इसके अलावा हमारे प्रदेश का सैकड़ों टन थूक दूसरे प्रदेशों की धरती सींच रहा है। ये अपने संसाधनों की बर्बादी नहीं तो क्या है।
हर व्यक्ति को कहीं भी थूकने के लिए स्वतंत्र होना चाहिए। मुझे उन राज्यों या विदेशी सरकारों से सख्त नफरत है, जो थूकने पर जुर्माना वसूल लेती हैं। यह प्राकृतिक संपदा का अपमान ही नहीं, हमारी बरसों पुरानी आदत का दमन भी है। लेकिन खुशी की बात है कि हमारे प्रदेश में थूकने की पूरी आजादी है। कहीं भी थूक सकते हैं लेकिन इसके लिए सबसे माकूल जगह सड़क मानी गई है। .. क्योंकि वह अपनी जागीर होती है। उसे तोडि़ये, खोदिये, अतिक्रमण कीजिए, थूक की नदियां बहा दीजिए या कितना भी अत्याचार कीजिए, वह बेचारी चूं तक नहीं करती।
हां, सड़क पर थूकने वाले कभी- कभी गलतफहमियां अवश्य पैदा कर देते हैं। कुछ लोग इस डिजायन से थूकते हैं कि खड़े होकर देखने पर गिलट का रुपया लगता है। इस चक्कर में बाद में अपने हाथ चुपचाप पैंट से पोंछते नजर आते हैं। मेरे एक पड़ोसी को थूकने के बाद कुछ देर निहारने की आदत थी। पता नहीं वह उसमें क्या तलाशते थे जो उन्हें पूरे जीवन नहीं मिला और एक दिन अचानक उसी थूक को निहारते- निहारते उनकी आत्मा उसी में समाहित हो गई।
एक बात और। लहू का रंग भले एक होता हो लेकिन थूक का नहीं। काल-परिस्थिति और आदतों के अनुसार यह बदलता रहता है। जैसे तंबाकू खाने वाले व्यक्ति से आप दूध जैसे उजले थूक की कल्पना नहीं कर सकते। इसी विधि से लाल, हरे, नीले, चितकबरे, सिल्की सिल्वर, मून लाइट, गोल्डन सिल्वर आदि रंगों का थूक देखकर आप उसके जनक के बारे में काफी कुछ जान सकते हैं। गनीमत है कि भविष्यवक्ताओं तक अभी ये आइडिया नहीं पहुंचा है। वरना हर पैथेलाजी लैब में एक ज्योतिषी भी बैठा नजर आने लगेगा।
लार को थूक की छोटी बहन कहा जा सकता है। जो अक्सर दूसरों की सुख-समृद्धि देखकर खुद-ब-खुद चू जाती है। खैर, बात थूक की चल रही थी। इसी थूक की वजह से कई बार प्रदेश मुसीबतों में पड़ते-पड़ते बचा है। घटना छठ के आसपास की है। एक नेता जी ने गंगा भ्रमण के दौरान उसमें थूक दिया। गंगा मैया को थूक अर्पण की इस घटना पर कड़ी प्रतिक्रियाएं आई। किसी ने थूक का बदला थूक से लेने की प्रतिज्ञा कर डाली। तो कोई नेता जी के थूक के कतरे गंगा जी से ढुंढवाकर उसका डीएनए टेस्ट करवाने पर अड़ गया। जिनकी समझ में कुछ नहीं आया। उन्होंने गंगा जी की ओर मुंह करके जोरदार प्रणाम किया और जोर से खंखारकर वहंीं रेत पर थूक दिया। ताकि सनद रहे और आने वाली बरसात में रेत में सूख चुका थूक नदी के पानी में मिलकर अमृत बन जाए। एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने की जितनी विधियो हो सकती थीं, सब अपना ली गई।
कहने का मतलब सब हुआ लेकिन बेचारी गंगा मैया के विचार जानने की कोशिश किसी ने नहीं की। मैली गंगा का उलाहना तो सभी देते हैं किंतु अपने हिस्से की गंदगी को उसमें बहाने से गुरेज नहीं करते। कहते हैं कि गंगाजल में मिलकर हर चीज पूज्य और पवित्र हो जाती है। अत: भविष्य में यदि वैज्ञानिकों के हाथ नेता जी के थूक के अवशेष लग जाएं तो उसे पवित्र मानकर उसकी प्राण प्रतिष्ठा करवा दी जाए। मगर इस मुद्दे पर एक- दूसरे की थू-थू से बिल्कुल तोबा कर ली जाए। थोड़ा कहे को ज्यादा समझिएगा। नो स्पिटिंग प्लीज!
खैर, उत्पादन भले पशुओं में भी होता हो लेकिन इसका सर्वाधिक वितरण सर्वाधिक मनुष्यों में ही होता है। कुछ लोग इसका वितरण किए बिना बात तक नहीं कर पाते। इनके सामने खड़ा व्यक्ति या तो बार-बार अपना चेहरा रूमाल से पोंछता रहता है या फिर सामने वाले के जोरदार झापड़ रसीद कर देता है।
मुहावरे की दृष्टि से ये प्रक्रिया 'मुंह पर थूकना' की श्रेणी में आती है। लेकिन मुहावरे में चूंकि मुंह पर पड़ने वाले छींटों की मात्रा तय नहीं की गयी है, इसलिए ये प्रक्रिया आज तक गुमनामी की जिंदगी जी रही है। 'थूककर चाटना' एक अन्य मुहावरा है। इस मुहावरे में चूंकि पदार्थ का स्वाद स्पष्ट नहीं है, इसलिए इसे स्वांत: सुखाय की श्रेणी में मान लिया गया है।
राजनीति में थूककर चाटने वालों का सबसे ज्यादा महत्व है। बल्कि यूं कहें कि केवल राजनीति ही ऐसा क्षेत्र है, जहां थूकने और फिर चाटने की पूरी आजादी है। इसका प्रमाण है कि आज तक किसी भी राजनीतिक दल को थूकने या चाटने के लिए गठबंधन करते नहीं देखा गया। इसके लिए पूरी स्वतंत्रता दी गई है। आदमी कहीं भी कुल्ला भर- भरके थूक सकता है और विकास में अपना हाथ बंटा सकता है। सच कहा जाए तो राजनीति में थूकने और चाटने की असीम संभावनाएं हैं। मैनेजमेंट की भाषा में कहा जाए तो कामयाबी पाने की महत्वपूर्ण टिप।
बिहार एक खैनी प्रधान प्रदेश है। खैनी और थूक का चोली-दामन का साथ है। दूसरे शब्दों में खैनी को थूक फैक्ट्री का रा-मैटेरियल भी कहा जा सकता है। यदि मान लिया जाए कि सूबे में प्रतिदिन तीन मीट्रिक टन खैनी की खपत है तो निश्चित मानिये कि थूक का उत्पादन भी इससे कम कतई नहीं होगा। अब यदि राष्ट्रीय औसत निकाला जाए तो बिहार थूक उत्पादन में अग्रणी राज्यों में होगा।
लेकिन अफसोस कि तमाम खनिज संपदा की तरह ये संपदा भी समुचित योजनाओं के अभाव में बर्बाद हो रही है। सैकड़ों क्विंटल थूक चौराहों, गलियों, सरकारी कार्यालयों के कोनों, दीवारों, डस्टबिनों आदि में बर्बाद कर दिया जाता है। इसके अलावा हमारे प्रदेश का सैकड़ों टन थूक दूसरे प्रदेशों की धरती सींच रहा है। ये अपने संसाधनों की बर्बादी नहीं तो क्या है।
हर व्यक्ति को कहीं भी थूकने के लिए स्वतंत्र होना चाहिए। मुझे उन राज्यों या विदेशी सरकारों से सख्त नफरत है, जो थूकने पर जुर्माना वसूल लेती हैं। यह प्राकृतिक संपदा का अपमान ही नहीं, हमारी बरसों पुरानी आदत का दमन भी है। लेकिन खुशी की बात है कि हमारे प्रदेश में थूकने की पूरी आजादी है। कहीं भी थूक सकते हैं लेकिन इसके लिए सबसे माकूल जगह सड़क मानी गई है। .. क्योंकि वह अपनी जागीर होती है। उसे तोडि़ये, खोदिये, अतिक्रमण कीजिए, थूक की नदियां बहा दीजिए या कितना भी अत्याचार कीजिए, वह बेचारी चूं तक नहीं करती।
हां, सड़क पर थूकने वाले कभी- कभी गलतफहमियां अवश्य पैदा कर देते हैं। कुछ लोग इस डिजायन से थूकते हैं कि खड़े होकर देखने पर गिलट का रुपया लगता है। इस चक्कर में बाद में अपने हाथ चुपचाप पैंट से पोंछते नजर आते हैं। मेरे एक पड़ोसी को थूकने के बाद कुछ देर निहारने की आदत थी। पता नहीं वह उसमें क्या तलाशते थे जो उन्हें पूरे जीवन नहीं मिला और एक दिन अचानक उसी थूक को निहारते- निहारते उनकी आत्मा उसी में समाहित हो गई।
एक बात और। लहू का रंग भले एक होता हो लेकिन थूक का नहीं। काल-परिस्थिति और आदतों के अनुसार यह बदलता रहता है। जैसे तंबाकू खाने वाले व्यक्ति से आप दूध जैसे उजले थूक की कल्पना नहीं कर सकते। इसी विधि से लाल, हरे, नीले, चितकबरे, सिल्की सिल्वर, मून लाइट, गोल्डन सिल्वर आदि रंगों का थूक देखकर आप उसके जनक के बारे में काफी कुछ जान सकते हैं। गनीमत है कि भविष्यवक्ताओं तक अभी ये आइडिया नहीं पहुंचा है। वरना हर पैथेलाजी लैब में एक ज्योतिषी भी बैठा नजर आने लगेगा।
लार को थूक की छोटी बहन कहा जा सकता है। जो अक्सर दूसरों की सुख-समृद्धि देखकर खुद-ब-खुद चू जाती है। खैर, बात थूक की चल रही थी। इसी थूक की वजह से कई बार प्रदेश मुसीबतों में पड़ते-पड़ते बचा है। घटना छठ के आसपास की है। एक नेता जी ने गंगा भ्रमण के दौरान उसमें थूक दिया। गंगा मैया को थूक अर्पण की इस घटना पर कड़ी प्रतिक्रियाएं आई। किसी ने थूक का बदला थूक से लेने की प्रतिज्ञा कर डाली। तो कोई नेता जी के थूक के कतरे गंगा जी से ढुंढवाकर उसका डीएनए टेस्ट करवाने पर अड़ गया। जिनकी समझ में कुछ नहीं आया। उन्होंने गंगा जी की ओर मुंह करके जोरदार प्रणाम किया और जोर से खंखारकर वहंीं रेत पर थूक दिया। ताकि सनद रहे और आने वाली बरसात में रेत में सूख चुका थूक नदी के पानी में मिलकर अमृत बन जाए। एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने की जितनी विधियो हो सकती थीं, सब अपना ली गई।
कहने का मतलब सब हुआ लेकिन बेचारी गंगा मैया के विचार जानने की कोशिश किसी ने नहीं की। मैली गंगा का उलाहना तो सभी देते हैं किंतु अपने हिस्से की गंदगी को उसमें बहाने से गुरेज नहीं करते। कहते हैं कि गंगाजल में मिलकर हर चीज पूज्य और पवित्र हो जाती है। अत: भविष्य में यदि वैज्ञानिकों के हाथ नेता जी के थूक के अवशेष लग जाएं तो उसे पवित्र मानकर उसकी प्राण प्रतिष्ठा करवा दी जाए। मगर इस मुद्दे पर एक- दूसरे की थू-थू से बिल्कुल तोबा कर ली जाए। थोड़ा कहे को ज्यादा समझिएगा। नो स्पिटिंग प्लीज!
Monday, April 19, 2010
हाय आलू! हाय भंटा! हाय परवल! हाय मूली!
पहले ऐसा माना जाता था कि सब्जी खाना स्वास्थ्यवर्धक होता है लेकिन आजकल ऐसा महसूस हो रहा है कि सब्जी खाना समृद्धता की निशानी है। पिछले दिनों मैं गल्ती से सब्जीमंडी चला गया। वहां सब्जियों के भाव सुनकर गश आते- आते बचा। आलू से लेकर पिद्दी भर का कद्दू तक ऐंठा बैठा था.. जैसे शेयर मार्केट का सारा कारोबार इन्हीं के भरोसे है। दलाल स्ट्रीट में बैठे दलालों पर अफसोस भी हुआ। आज तक एक भी सब्जी को लिस्टेड क्यों नहीं किया गया। शायद लोग भूल गये कि मामूली सा प्याज तक इस देश की सरकार बदल चुका है। खैर!
ऐसा नहीं है कि मेरे परिवार में सब्जी खाने का रिवाज नहीं है। सो तो जानने वाले जानते हैं कि मैं खाते-पीते, पहनते-ओढ़ते खानदान को बिलांग करता हूं। इतिहास गवाह है कि प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के समय भी मेरे पूर्वजों ने अंग्रेजों से ज्यादा विरोध उड़द की दाल और जिमिकंद की सब्जी का किया था। क्योंकि, दोनों चीजें कब्जावर हैं। गैस बहुत बनाती हैं। गैस्ट्रिक के मरीज जानते हैं कि गैस कितनी लज्जाहीन परेशानी है। खुद को भी परेशान करती है और बगल में बैठे व्यक्ति को भी। मेरे विचार से दुनिया में संभवत: गैस ही ऐसी एकमात्र बीमारी है, जो मरीज के साथ उसके तीमारदारों और वातवरण को भी प्रभावित करती है।
बहरहाल मेरे खानदान में सब्जी खाने का इतिहास काफी पुराना है.. पाषाणकालीन सभ्यता से भी पुराना। प्रमाण यह कि मैं तकरीबन सारी सब्जियां पहचानता हूं। मगर इधर पता नहीं कौन सा शनि मेरे मंगल में प्रवेश कर गया कि अमंगल ही अमंगल हो गया। सब्जियां खाना तो दूर, इधर मैं उन्हें देखने तक को तरस गया हूं। पिछले हफ्ते मैंने डरते- डरते अपनी शरीक-ए-हयात से पूछा- 'क्यों जी! आजकल क्या कोई ऐसा व्रत चल रहा है, जिसमें सब्जी खाना मना होता है। सच पूरे पंद्रह दिन हो गये.. मैंने निनुआ का छिल्का तक नहीं देखा।'
बस मेरा यह कहना था कि वह सड़े हुए कुम्हड़े जैसी फट पड़ीं- 'दिमाग सटक गया है या स्पीडी ट्रायल के चक्कर में जल्दी सठिया गये हो। चले हो प्रिंस आफ वेल्स बनने। कुछ पता भी है। सब्जियों में आग लगी हुई है। फायर ब्रिगेड वाले शहरों, कस्बों की ही आगें बुझाने में हांफ रहे हैं.. यहां तो भगवान भी मालिक बनने को तैयार नहीं।' ये सुनकर मेरे अंर्तमन ने मुझे कांपने की आज्ञा दी लेकिन बिना वास्तविकता जांचे कांपना मेरे सिद्धांतों के खिलाफ था। इसलिए तुरंत झोला उठाया और चला आया सब्जीमंडी। अब आगे की कथा जरा दिल थामकर।
पूरी मंडी में एक अलग किस्म की दहशत व्याप्त थी। हर सब्जी के आगे टैग लगा हुआ था, जिस पर उसका मूल्य अंकित था। बस हाल मार्क की कमी थी वरना सब्जियों और सोने के तेवरों में कोई फर्क नहीं था। ग्राहक सहमे हुए थे। दिल के मरीजों की हालत कुछ ज्यादा ही खराब थी। पता नहीं किस सब्जी का भाव सुनकर दौरा पड़ जाये।
कटहल, मटर, मशरूम और शिमला मिर्च जैसी चीजें ब्लैक कैट कमांडो की कड़ी सुरक्षा में थीं। इन्हें छूना तो दरकिनार देखना भी आसान न था। उसके लिये सचिवालय से पास बनवाना पड़ता था। मंडी में रह- रहकर सूचना प्रसारित की जा रही थी कि आफ सीजन सब्जी खरीदने लोगों के लिए पैन संख्या का उल्लेख करना आवश्यक है।
मैंने एक दुकानदार से डरते- डरते आलू का भाव पूछा। उसने ऐसे घूरा जैसे तसल्ली कर लेना चाहता हो कि औकात भी है आलू खरीदने की या खामखां टाइम खोटी करने चले आए। फिर कुछ सोचकर बोला- 'एक रुपए जोड़ा!' दाम सुनकर अपनी शरीक-ए-हयात का चेहरा याद आ गया, जिसके खाली हाथ लौटने पर और सुर्ख हो जाने का पूरा- पूरा खतरा था।
हिम्मत करके आगे पूछा- 'और भय्या.. भंटा क्या भाव?'
'पचास पैसे प्रति वर्ग इंच!'
'यार भंटा बेच रहे हो या अपार्टमेंट।' मैंने कह तो दिया लेकिन इससे पहले कि दुकानदार वीर रस में प्रवेश करे, आगे बढ़ गया।
अगले दुकानदार से कुछ कहने की जरूरत न पड़ी। उसे शायद लगा कि मैं सूचना कार्यालय से सूचना पाने के अधिकार के तहत सूचनाधिकारी की स्वीकृति लेकर उसे सूचित करने आ रहा हूं। इसलिए पास पहुंचते ही बिना कामा- फुल स्टॉप के चालू हो गया-
'ध्यान से नोट कर लीजिये। मैं एक बार में ही सारी सब्जियों के भाव बता देता हूं.. मूली दो रुपए प्रति सेंटीमीटर, परवल का छिल्का चार रुपए पाव, हरी धनिया एक रुपए की चार पत्ती, मिर्च एक रुपए जोड़ा, टमाटर, कुंदरू और भिंडी दो रुपए में दो मिनट दिखाये जाएंगे। अंडरस्टैंड.. हिंदी में कुछ समझे। अब आगे बढि़ये.. चलिये, दुकान के सीधे प्रसारण का समय हो रहा है। चैनल वाले आते ही होंगे।'
इसके बाद के शब्द मैं नहीं सुन सका और मंडी के बाहर निकल आया। बाहर जानवरों का हरा-हरा चार बिक रहा था। मन में एक स्वाभाविक उत्कंठा हुई कि जब जानवर मनुष्य का भोजन कर सकते हैं तो मनुष्य उनका क्यों नहीं। सिद्ध भी हो चुका है कि चारा कतई नुकसानदायक चीज नहीं है। उसे मनुष्य आसानी से पचा सकता है। वैसे भी आकार-प्रकार को अगर छोड़ दिया जाए तो सब्जियों और चारे की हरियाली में कोई फर्क नहीं होता।
चारा बेचने वाला मेरी ओर बड़ी हसरत से देख रहा था। पता नहीं हालत पर उसे रहम आ रहा था या वह बेवकूफ समझ रहा था कि घर में गाय-घोड़े बंधे होंगे। एक पल मैं चारे के सामने ठिठका फिर पूछा- 'ये क्या भाव है?'
दोस्तों! जवाब में दुकानदार केवल मुस्कुराया। हालांकि वह कह सकता था कि भाव जानकर क्या करोगे। आप तो ये बताओ.. यहीं खाओगे या घर ले जाओगे। लेकिन उसकी मुस्कुराहट में जो शब्द छिपे थे अगर वे आकार पाते तो शायद ये होते- मंहगाई कोसने की नहीं सोचने की चीज है। आखिर क्यों हर चीज का दाम आसमान छू रहा है। वजह साफ है। मांग ज्यादा, उत्पादन कम। ऊपर से प्राकृतिक आपदाएं। प्रदूषित पर्यावरण। इसलिए असंतुलन है। देखते जाइये.. अगर अब भी नहीं चेते तो एक दिन आप वाकई चारे का भाव पूछते नजर आएंगे।
और अंत में..
मुरारी के फ्रिज में शराब की खाली बोतलें देखकर उनके दोस्त ने पूछा- 'ये खाली बोतलों का क्या मतलब है?'
'ये मेरे उन मेहमानों के लिए हैं, जो नहीं पीते।' जवाब मिला।
ऐसा नहीं है कि मेरे परिवार में सब्जी खाने का रिवाज नहीं है। सो तो जानने वाले जानते हैं कि मैं खाते-पीते, पहनते-ओढ़ते खानदान को बिलांग करता हूं। इतिहास गवाह है कि प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के समय भी मेरे पूर्वजों ने अंग्रेजों से ज्यादा विरोध उड़द की दाल और जिमिकंद की सब्जी का किया था। क्योंकि, दोनों चीजें कब्जावर हैं। गैस बहुत बनाती हैं। गैस्ट्रिक के मरीज जानते हैं कि गैस कितनी लज्जाहीन परेशानी है। खुद को भी परेशान करती है और बगल में बैठे व्यक्ति को भी। मेरे विचार से दुनिया में संभवत: गैस ही ऐसी एकमात्र बीमारी है, जो मरीज के साथ उसके तीमारदारों और वातवरण को भी प्रभावित करती है।
बहरहाल मेरे खानदान में सब्जी खाने का इतिहास काफी पुराना है.. पाषाणकालीन सभ्यता से भी पुराना। प्रमाण यह कि मैं तकरीबन सारी सब्जियां पहचानता हूं। मगर इधर पता नहीं कौन सा शनि मेरे मंगल में प्रवेश कर गया कि अमंगल ही अमंगल हो गया। सब्जियां खाना तो दूर, इधर मैं उन्हें देखने तक को तरस गया हूं। पिछले हफ्ते मैंने डरते- डरते अपनी शरीक-ए-हयात से पूछा- 'क्यों जी! आजकल क्या कोई ऐसा व्रत चल रहा है, जिसमें सब्जी खाना मना होता है। सच पूरे पंद्रह दिन हो गये.. मैंने निनुआ का छिल्का तक नहीं देखा।'
बस मेरा यह कहना था कि वह सड़े हुए कुम्हड़े जैसी फट पड़ीं- 'दिमाग सटक गया है या स्पीडी ट्रायल के चक्कर में जल्दी सठिया गये हो। चले हो प्रिंस आफ वेल्स बनने। कुछ पता भी है। सब्जियों में आग लगी हुई है। फायर ब्रिगेड वाले शहरों, कस्बों की ही आगें बुझाने में हांफ रहे हैं.. यहां तो भगवान भी मालिक बनने को तैयार नहीं।' ये सुनकर मेरे अंर्तमन ने मुझे कांपने की आज्ञा दी लेकिन बिना वास्तविकता जांचे कांपना मेरे सिद्धांतों के खिलाफ था। इसलिए तुरंत झोला उठाया और चला आया सब्जीमंडी। अब आगे की कथा जरा दिल थामकर।
पूरी मंडी में एक अलग किस्म की दहशत व्याप्त थी। हर सब्जी के आगे टैग लगा हुआ था, जिस पर उसका मूल्य अंकित था। बस हाल मार्क की कमी थी वरना सब्जियों और सोने के तेवरों में कोई फर्क नहीं था। ग्राहक सहमे हुए थे। दिल के मरीजों की हालत कुछ ज्यादा ही खराब थी। पता नहीं किस सब्जी का भाव सुनकर दौरा पड़ जाये।
कटहल, मटर, मशरूम और शिमला मिर्च जैसी चीजें ब्लैक कैट कमांडो की कड़ी सुरक्षा में थीं। इन्हें छूना तो दरकिनार देखना भी आसान न था। उसके लिये सचिवालय से पास बनवाना पड़ता था। मंडी में रह- रहकर सूचना प्रसारित की जा रही थी कि आफ सीजन सब्जी खरीदने लोगों के लिए पैन संख्या का उल्लेख करना आवश्यक है।
मैंने एक दुकानदार से डरते- डरते आलू का भाव पूछा। उसने ऐसे घूरा जैसे तसल्ली कर लेना चाहता हो कि औकात भी है आलू खरीदने की या खामखां टाइम खोटी करने चले आए। फिर कुछ सोचकर बोला- 'एक रुपए जोड़ा!' दाम सुनकर अपनी शरीक-ए-हयात का चेहरा याद आ गया, जिसके खाली हाथ लौटने पर और सुर्ख हो जाने का पूरा- पूरा खतरा था।
हिम्मत करके आगे पूछा- 'और भय्या.. भंटा क्या भाव?'
'पचास पैसे प्रति वर्ग इंच!'
'यार भंटा बेच रहे हो या अपार्टमेंट।' मैंने कह तो दिया लेकिन इससे पहले कि दुकानदार वीर रस में प्रवेश करे, आगे बढ़ गया।
अगले दुकानदार से कुछ कहने की जरूरत न पड़ी। उसे शायद लगा कि मैं सूचना कार्यालय से सूचना पाने के अधिकार के तहत सूचनाधिकारी की स्वीकृति लेकर उसे सूचित करने आ रहा हूं। इसलिए पास पहुंचते ही बिना कामा- फुल स्टॉप के चालू हो गया-
'ध्यान से नोट कर लीजिये। मैं एक बार में ही सारी सब्जियों के भाव बता देता हूं.. मूली दो रुपए प्रति सेंटीमीटर, परवल का छिल्का चार रुपए पाव, हरी धनिया एक रुपए की चार पत्ती, मिर्च एक रुपए जोड़ा, टमाटर, कुंदरू और भिंडी दो रुपए में दो मिनट दिखाये जाएंगे। अंडरस्टैंड.. हिंदी में कुछ समझे। अब आगे बढि़ये.. चलिये, दुकान के सीधे प्रसारण का समय हो रहा है। चैनल वाले आते ही होंगे।'
इसके बाद के शब्द मैं नहीं सुन सका और मंडी के बाहर निकल आया। बाहर जानवरों का हरा-हरा चार बिक रहा था। मन में एक स्वाभाविक उत्कंठा हुई कि जब जानवर मनुष्य का भोजन कर सकते हैं तो मनुष्य उनका क्यों नहीं। सिद्ध भी हो चुका है कि चारा कतई नुकसानदायक चीज नहीं है। उसे मनुष्य आसानी से पचा सकता है। वैसे भी आकार-प्रकार को अगर छोड़ दिया जाए तो सब्जियों और चारे की हरियाली में कोई फर्क नहीं होता।
चारा बेचने वाला मेरी ओर बड़ी हसरत से देख रहा था। पता नहीं हालत पर उसे रहम आ रहा था या वह बेवकूफ समझ रहा था कि घर में गाय-घोड़े बंधे होंगे। एक पल मैं चारे के सामने ठिठका फिर पूछा- 'ये क्या भाव है?'
दोस्तों! जवाब में दुकानदार केवल मुस्कुराया। हालांकि वह कह सकता था कि भाव जानकर क्या करोगे। आप तो ये बताओ.. यहीं खाओगे या घर ले जाओगे। लेकिन उसकी मुस्कुराहट में जो शब्द छिपे थे अगर वे आकार पाते तो शायद ये होते- मंहगाई कोसने की नहीं सोचने की चीज है। आखिर क्यों हर चीज का दाम आसमान छू रहा है। वजह साफ है। मांग ज्यादा, उत्पादन कम। ऊपर से प्राकृतिक आपदाएं। प्रदूषित पर्यावरण। इसलिए असंतुलन है। देखते जाइये.. अगर अब भी नहीं चेते तो एक दिन आप वाकई चारे का भाव पूछते नजर आएंगे।
और अंत में..
मुरारी के फ्रिज में शराब की खाली बोतलें देखकर उनके दोस्त ने पूछा- 'ये खाली बोतलों का क्या मतलब है?'
'ये मेरे उन मेहमानों के लिए हैं, जो नहीं पीते।' जवाब मिला।
Monday, April 12, 2010
मरने के बाद
मुझे एक झटका सा लगा। महसूस हुआ कि मैं जमीन छोड़ चुका हूं। बिल्कुल उसी तरह जिस तरह हवाई यात्रा में महसूस होता है। जमीन छोड़ने और इस अहसास को महसूस करने के दरम्यान मैंने अच्छी भली ऊंचाई पकड़ ली। जैसे हवा का अनुकूल रुख होने पर पतंग खुद-ब-खुद अपनी ऊंचाई तलाश लेती है।
तभी दूसरा झटका लगा। ये देखकर कि मेरा शरीर गायब था। हैरत हुई कि जिस जिस्म को तेल, पानी, शैंपू और जूं देकर इतने बरसों तक पाला पोसा, वह अचानक दगा दे गया। मेरी हालत अजीब सी होनी शुरू होती। इसी बीच मुझे एक और अपने जैसा दिखा। वह मेरी ही ओर आ रहा था। पास आकर बोला- 'बधाई हो! आखिर तुम मर ही गये।'
अपने मरने का जिक्र सुनकर मैं चौंका। तो ये बात है। इसीलिए मेरा पांच फुट बाई तीस सेंटीमीटर का शरीर नदारद है। अब मैंने उसे ध्यान से देखा। वह भी मेरी ही तरह था यानी मरा हुआ। इसका मतलब! आगे कुछ मैं सोच पाता, उसके पहले ही वह बोला- 'पता है, तुम्हारे साथ मैं भी पुलिस की गोली से घायल हुआ था। और, तुम्हारे साथ ही सरकारी अस्पताल में भर्ती भी हुआ। वहां पता नहीं क्या हुआ। डॉक्टर तुम्हें ऑपरेशन थियेटर में ले गये। मैं बेहोश हो गया। होश आया तो तुम्हारे बेड पर ढाई- ढाई फुट के दो मरीज पड़े थे। मैं इसे डॉक्टरों का चमत्कार समझ रहा था। लेकिन तुम्हें यहां देखकर मेरा मतलब मरा हुआ देखकर मेरी सारी चिंताएं दूर हो गयीं।'
किसी के मरने पर खुश होना और बात है लेकिन अपने मरने की खुशी दूसरे को मनाते देखना.. भगवान ये दिन किसी को न दिखाये। लेकिन उसे मेरी भावनाओं से कोई मतलब नहीं था। शायद वह बेवकूफ समझ रहा था कि आदमी के मरने के बाद उसकी भावनाएं भी मर जाती हैं। सच कहा है कि कुछ लोगों को मरने के बाद भी अक्ल नहीं आती। वह उसी श्रेणी में था। मुझे गुमसुम देखकर उसे होश आया और मेरे मरने की खुाशी में गा रहे मंगल गीतों को उसने विराम लगाया।
'क्या हुआ बिरादर?' उसने सहानुभूति से पूछा।
'कुछ नहीं यार। विश्वास नहीं हो रहा कि मैं मर चुका हूं।' मैंने सच्चाई बता दी।
'होता है यार.. होता है। पहली-पहली बार मरने में ऐसा ही होता है।' उसने इस आत्मविश्वास से जवाब दिया जैसे उसे कई बार मरने का तर्जुबा हो।
'.. जानते हो', वह आगे बाला- 'अस्पताल में मेरे सामने के बेड वाला मरीज तो पोस्टमार्टम में पहुंचने के बाद भी नहीं मान रहा था कि वह मर चुका है। बाद में इलाके के दरोगा जी ने जाकर हड़का तब साला मरने को तैयार हुआ।'
मुझे लगा कि छोटी सी मृत्योपरांत आयु में भी उसने मरने के मामले में काफी रिसर्च कर डाली है। अब मुझे उसमें दिलचस्पी जाग उठी। वैसे भी उस इलाके में, जहां कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था.. उसके सहारे टाइम पास किया जा सकता था। ये सोच मैंने उससे मित्रवत पूछा- 'मरने के पहले जब तुम जिंदा थे, मेरा मतलब धरती पर तुम क्या करते थे?'
'नौकरी की तलाश।' उसने सपाट सा जवाब दिया।
'यानी कुछ नहीं करते थे।'
'कहा न कि नौकरी की तलाश करता था। घर में सबसे बड़ा था। पिताजी इसी इंतजार में रिटायर हो गये कि बुढ़ापे में उनका सहारा बनूंगा। अपने चार छोटे भाई- बहनों को पैरों पर खड़ा करूंगा। कैंसर पीडि़त मां का इलाज कराऊंगा.. लेकिन कुछ न करा सका तो जानबूझकर उस भीड़ में घुस गया, जिस पर पुलिस गोली चला रही थी। और, मेरी मुराद पूरी हो गयी। पिता को निकम्मे बेटे से छुटकारा मिल गया।'
उसकी बात सुनकर इच्छा हुई कि मेरी आंखें भर आयें लेकिन आंखें थी ही नहीं। मुझे लगा कि वह उतना बेवकूफ नहीं है, जितना मैं माने बैठा हूं।
अचानक वह बोला- 'चलो श्मशान घाट चलते हैं। वहां अपना अंतिम संस्कार हो रहा होगा।'
अपना अंतिम संस्कार होते देखना। यह विचार भी कमाल का था। यहां तो साक्षात होने जा रहा था। सच्चाई यह थी कि हम मर चुके थे और अब अंतिम संस्कार ही देख सकते थे। शादी-ब्याह या किसी पार्टी में तो कोई बुलाने से रहा। मैंने मौन स्वीकृति दे दी और थोड़ी ही देर में हम दोनों श्मशान घाट आ गये।
मजे की भीड़ थी वहां भी। हालांकि शहर में कोई दंगा या बलवा भी नहीं हुआ था और सरकारी दस्तावेजों के मुताबिक न ही किसी महामारी का हमला। फिर भी श्मशान गुलजार था। वहां मजे की चिल्ल-पों मची हुई थी। मुर्दा से ज्यादा शोर भावी मुर्दे मतलब कंधा देने वाले मचा रहे थे। (क्रमश:)
तभी दूसरा झटका लगा। ये देखकर कि मेरा शरीर गायब था। हैरत हुई कि जिस जिस्म को तेल, पानी, शैंपू और जूं देकर इतने बरसों तक पाला पोसा, वह अचानक दगा दे गया। मेरी हालत अजीब सी होनी शुरू होती। इसी बीच मुझे एक और अपने जैसा दिखा। वह मेरी ही ओर आ रहा था। पास आकर बोला- 'बधाई हो! आखिर तुम मर ही गये।'
अपने मरने का जिक्र सुनकर मैं चौंका। तो ये बात है। इसीलिए मेरा पांच फुट बाई तीस सेंटीमीटर का शरीर नदारद है। अब मैंने उसे ध्यान से देखा। वह भी मेरी ही तरह था यानी मरा हुआ। इसका मतलब! आगे कुछ मैं सोच पाता, उसके पहले ही वह बोला- 'पता है, तुम्हारे साथ मैं भी पुलिस की गोली से घायल हुआ था। और, तुम्हारे साथ ही सरकारी अस्पताल में भर्ती भी हुआ। वहां पता नहीं क्या हुआ। डॉक्टर तुम्हें ऑपरेशन थियेटर में ले गये। मैं बेहोश हो गया। होश आया तो तुम्हारे बेड पर ढाई- ढाई फुट के दो मरीज पड़े थे। मैं इसे डॉक्टरों का चमत्कार समझ रहा था। लेकिन तुम्हें यहां देखकर मेरा मतलब मरा हुआ देखकर मेरी सारी चिंताएं दूर हो गयीं।'
किसी के मरने पर खुश होना और बात है लेकिन अपने मरने की खुशी दूसरे को मनाते देखना.. भगवान ये दिन किसी को न दिखाये। लेकिन उसे मेरी भावनाओं से कोई मतलब नहीं था। शायद वह बेवकूफ समझ रहा था कि आदमी के मरने के बाद उसकी भावनाएं भी मर जाती हैं। सच कहा है कि कुछ लोगों को मरने के बाद भी अक्ल नहीं आती। वह उसी श्रेणी में था। मुझे गुमसुम देखकर उसे होश आया और मेरे मरने की खुाशी में गा रहे मंगल गीतों को उसने विराम लगाया।
'क्या हुआ बिरादर?' उसने सहानुभूति से पूछा।
'कुछ नहीं यार। विश्वास नहीं हो रहा कि मैं मर चुका हूं।' मैंने सच्चाई बता दी।
'होता है यार.. होता है। पहली-पहली बार मरने में ऐसा ही होता है।' उसने इस आत्मविश्वास से जवाब दिया जैसे उसे कई बार मरने का तर्जुबा हो।
'.. जानते हो', वह आगे बाला- 'अस्पताल में मेरे सामने के बेड वाला मरीज तो पोस्टमार्टम में पहुंचने के बाद भी नहीं मान रहा था कि वह मर चुका है। बाद में इलाके के दरोगा जी ने जाकर हड़का तब साला मरने को तैयार हुआ।'
मुझे लगा कि छोटी सी मृत्योपरांत आयु में भी उसने मरने के मामले में काफी रिसर्च कर डाली है। अब मुझे उसमें दिलचस्पी जाग उठी। वैसे भी उस इलाके में, जहां कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था.. उसके सहारे टाइम पास किया जा सकता था। ये सोच मैंने उससे मित्रवत पूछा- 'मरने के पहले जब तुम जिंदा थे, मेरा मतलब धरती पर तुम क्या करते थे?'
'नौकरी की तलाश।' उसने सपाट सा जवाब दिया।
'यानी कुछ नहीं करते थे।'
'कहा न कि नौकरी की तलाश करता था। घर में सबसे बड़ा था। पिताजी इसी इंतजार में रिटायर हो गये कि बुढ़ापे में उनका सहारा बनूंगा। अपने चार छोटे भाई- बहनों को पैरों पर खड़ा करूंगा। कैंसर पीडि़त मां का इलाज कराऊंगा.. लेकिन कुछ न करा सका तो जानबूझकर उस भीड़ में घुस गया, जिस पर पुलिस गोली चला रही थी। और, मेरी मुराद पूरी हो गयी। पिता को निकम्मे बेटे से छुटकारा मिल गया।'
उसकी बात सुनकर इच्छा हुई कि मेरी आंखें भर आयें लेकिन आंखें थी ही नहीं। मुझे लगा कि वह उतना बेवकूफ नहीं है, जितना मैं माने बैठा हूं।
अचानक वह बोला- 'चलो श्मशान घाट चलते हैं। वहां अपना अंतिम संस्कार हो रहा होगा।'
अपना अंतिम संस्कार होते देखना। यह विचार भी कमाल का था। यहां तो साक्षात होने जा रहा था। सच्चाई यह थी कि हम मर चुके थे और अब अंतिम संस्कार ही देख सकते थे। शादी-ब्याह या किसी पार्टी में तो कोई बुलाने से रहा। मैंने मौन स्वीकृति दे दी और थोड़ी ही देर में हम दोनों श्मशान घाट आ गये।
मजे की भीड़ थी वहां भी। हालांकि शहर में कोई दंगा या बलवा भी नहीं हुआ था और सरकारी दस्तावेजों के मुताबिक न ही किसी महामारी का हमला। फिर भी श्मशान गुलजार था। वहां मजे की चिल्ल-पों मची हुई थी। मुर्दा से ज्यादा शोर भावी मुर्दे मतलब कंधा देने वाले मचा रहे थे। (क्रमश:)
Saturday, April 10, 2010
मुजफ्फरपुर सीमा प्रारंभ, सड़क समाप्त
प्रणाम इस शहर को, जो इतने सारे और तरह- तरह के गढ्डों के बीच रहकर भी जिंदा है! प्रणाम नगर निगम को, जिसके तमाम प्रयासों के बावजूद शहर का कोई न कोई कोना साफ दिख ही जाता है! प्रणाम निगम के कर्मचारियों को, जिनके सतत प्रयत्नों से शहर हमेशा कूड़े के ढेर पर बैठा रहता है। जैसे पर्यावरणविदों को चुनौती दे रहा हो- 'जो करना हो कर लो, हम बारह साल क्या चौरासी साल बाद भी घूरे के घेरे ही रहेंगे।' प्रणाम यहां के आवारा पशुओं को, जिनको यातायात नियमों की जानकारी हो न हो लेकिन इतना अवश्य जानते हैं कि उनके किस ऐंगल से बैठने से सड़क पर जाम लग सकता है!
अगला प्रणाम यहां के पुलिसजनों को! जिनकी वर्दी देखकर कुत्ते मुंह फेर लेते हैं, इसलिए कि इन्फेक्शन न हो जाये। यूं तो शहर में कौवे दिखते नहीं लेकिन अगर सौभाग्य से दिख जाते हैं तो पुलिस को देखकर चहचहाने लगते हैं! बकरों की मम्मियां खैर मनाने लगती है और मुर्गो की टांगें फड़फड़ाने लगती हैं! मछलियां विचारने लगती हैं कि उनके एक के बजाय दो मूड़े क्यों न हुए!
सम्मानित अपराधियों, गली के श्रद्धेय गुंडों, चौराहों के प्रात: स्मरणीय बदमाशों, कम्प्यूटर और नेट के युग में भी लड़कियों को देखकर सीटी बजाने वाली प्राचीन प्रथा पर यकीन करने वाले मजनुओं, मिलावट को व्यापार का धर्म और हाथी की लीद को मसाले का मर्म मानने वाले निष्ठावान व्यापारियों को भी मेरा सादर प्रणाम!
अब आगे की कथा जरा दिल थामकर पढ़ें-
दाद, खाज, खुजली, अकौता, भगंदर, नासूर, बवासीर, कांच, पेट का दर्द, पीठ का दर्द, पुट्ठे का दर्द, अम्लबाई का दर्द, हैजा, कालरा, डायरिया, रात में नींद नहीं आती हो, दिन में खट्टी डकारें आती हों, रात में मीठी हवा निकलती हो, पेट लगातार कुश्ती लड़ता रहता हो या अजीब- अजीब आवाजें करता हो, आंखों में खराबी हो, दूर की चीजें साफ नजर न आती हों, पास की चीजें बिल्कुल न दिखती हों, पैरों में ऐंठन रहती हो, हाथ कंपकंपाते हों, फालिज का खतरा हो, किडनी प्राब्लम हो, डायबिटीज, कैंसर, हेपेटाइटिस, इन्सेफलाइटिस, कंजक्टिवाइटिस, पुराना दमा हो या नया एचआईवी, फेफड़ों में पानी भर गया हो या आंखों का सूख गया हो, कान में आवाज की जगह केवल हवा आती- जाती हो, या ऐसी ही कोई बीमारी यदि आपको अभी तक नहीं हुई है तो चिंता की कोई बात नहीं है। इस शहर में हर बीमारी का जबर्दस्त इस्कोप है। यकीन न हो तो जूरन छपरा जाकर देख लीजिये। ये अंदाज लगाना मुश्किल है कि शहर में डॉक्टर ज्यादा हैं या मरीज! किसी भी डॉक्टर से संपर्क कीजिये।
डॉक्टर साहब न सिर्फ आपकी बीमारी का इलाज करेंगे, बल्कि ये भी बतायेंगे कि वे किस बीमारी का इलाज कर रहे हैं। वरना कुछ डॉक्टर तो मरीज के क्लीनिक में घुसते ही उसका इलाज शुरू कर देते हैं। बाद में पता चलता है कि जल्दी में जिसे इंजेक्शन दिया गया, वह मरीज नहीं उसका अटेंडेंट था। दूसरे शहरों की तरह जांच रिपोर्ट देखने के बाद ही यहां भी बीमारी बताने की प्रथा है। फिर भी समझदार मरीज जांच रिपोर्ट पर ज्यादा विश्वास नहीं करते। बस खुद को डॉक्टर के हवाले कर देते हैं। मरीज बीमार होकर अपना धर्म निबाहते हैं और डॉक्टर इलाज करके अपना। पैथालॉजी वाले रिपोर्ट देकर अपना। रिपोर्ट कभी- कभी गलत भी निकल जाती है। लेकिन उससे आपकी बीमारी गलत नहीं हो जाती। वह हर हाल में वही रहती है, जो लेकर आप डॉक्टर के पास गये थे।
जिक्र होता है जब कयामत का, तेरे जलवों की बात होती है। अर्थात डॉक्टरों का जिक्र हो और अस्पताल की बात न हो तो बात बनती नहीं। इसलिए मेरा एसकेएमसीएच को भी दंडवत प्रणाम! उसकी इमरजेंसी को प्रणाम, जो खुद इमरजेंसी में भर्ती होने योग्य है! उसके वार्डो को प्रणाम, जो भूतपूर्व मरीजों की रूहों को भी पनाह देते हैं। प्रणाम तो उस धाम को भी करने को जी चाहता है, जहां आदमी चार कंधों पर सवार होकर अपनी अंतिम यात्रा पर जाता है लेकिन इतनी जल्दी नहीं। फिलहाल चलते- चलते एक किस्सा सुन लीजिये-
और अंत में..
पिछले माह नारद मुनि को रास्ते में यमराज मिल गये। उनके साथ आत्माओं से भरी एक गठरी थी। ये देख मुनिवर ने यमराज से पूछा- 'नारायण! नारायण! महाराज इतनी सारी आत्माओं को एक साथ लेकर जा रहे हैं.. यमलोक में सब ठीकठाक तो है न!'
'ऐसी कोई बात नहीं है मुनिवर, दरअसल मार्च का प्रेशर है.. टारगेट पूरा करना है न।' यमराज ने जवाब दिया।
अगला प्रणाम यहां के पुलिसजनों को! जिनकी वर्दी देखकर कुत्ते मुंह फेर लेते हैं, इसलिए कि इन्फेक्शन न हो जाये। यूं तो शहर में कौवे दिखते नहीं लेकिन अगर सौभाग्य से दिख जाते हैं तो पुलिस को देखकर चहचहाने लगते हैं! बकरों की मम्मियां खैर मनाने लगती है और मुर्गो की टांगें फड़फड़ाने लगती हैं! मछलियां विचारने लगती हैं कि उनके एक के बजाय दो मूड़े क्यों न हुए!
सम्मानित अपराधियों, गली के श्रद्धेय गुंडों, चौराहों के प्रात: स्मरणीय बदमाशों, कम्प्यूटर और नेट के युग में भी लड़कियों को देखकर सीटी बजाने वाली प्राचीन प्रथा पर यकीन करने वाले मजनुओं, मिलावट को व्यापार का धर्म और हाथी की लीद को मसाले का मर्म मानने वाले निष्ठावान व्यापारियों को भी मेरा सादर प्रणाम!
अब आगे की कथा जरा दिल थामकर पढ़ें-
दाद, खाज, खुजली, अकौता, भगंदर, नासूर, बवासीर, कांच, पेट का दर्द, पीठ का दर्द, पुट्ठे का दर्द, अम्लबाई का दर्द, हैजा, कालरा, डायरिया, रात में नींद नहीं आती हो, दिन में खट्टी डकारें आती हों, रात में मीठी हवा निकलती हो, पेट लगातार कुश्ती लड़ता रहता हो या अजीब- अजीब आवाजें करता हो, आंखों में खराबी हो, दूर की चीजें साफ नजर न आती हों, पास की चीजें बिल्कुल न दिखती हों, पैरों में ऐंठन रहती हो, हाथ कंपकंपाते हों, फालिज का खतरा हो, किडनी प्राब्लम हो, डायबिटीज, कैंसर, हेपेटाइटिस, इन्सेफलाइटिस, कंजक्टिवाइटिस, पुराना दमा हो या नया एचआईवी, फेफड़ों में पानी भर गया हो या आंखों का सूख गया हो, कान में आवाज की जगह केवल हवा आती- जाती हो, या ऐसी ही कोई बीमारी यदि आपको अभी तक नहीं हुई है तो चिंता की कोई बात नहीं है। इस शहर में हर बीमारी का जबर्दस्त इस्कोप है। यकीन न हो तो जूरन छपरा जाकर देख लीजिये। ये अंदाज लगाना मुश्किल है कि शहर में डॉक्टर ज्यादा हैं या मरीज! किसी भी डॉक्टर से संपर्क कीजिये।
डॉक्टर साहब न सिर्फ आपकी बीमारी का इलाज करेंगे, बल्कि ये भी बतायेंगे कि वे किस बीमारी का इलाज कर रहे हैं। वरना कुछ डॉक्टर तो मरीज के क्लीनिक में घुसते ही उसका इलाज शुरू कर देते हैं। बाद में पता चलता है कि जल्दी में जिसे इंजेक्शन दिया गया, वह मरीज नहीं उसका अटेंडेंट था। दूसरे शहरों की तरह जांच रिपोर्ट देखने के बाद ही यहां भी बीमारी बताने की प्रथा है। फिर भी समझदार मरीज जांच रिपोर्ट पर ज्यादा विश्वास नहीं करते। बस खुद को डॉक्टर के हवाले कर देते हैं। मरीज बीमार होकर अपना धर्म निबाहते हैं और डॉक्टर इलाज करके अपना। पैथालॉजी वाले रिपोर्ट देकर अपना। रिपोर्ट कभी- कभी गलत भी निकल जाती है। लेकिन उससे आपकी बीमारी गलत नहीं हो जाती। वह हर हाल में वही रहती है, जो लेकर आप डॉक्टर के पास गये थे।
जिक्र होता है जब कयामत का, तेरे जलवों की बात होती है। अर्थात डॉक्टरों का जिक्र हो और अस्पताल की बात न हो तो बात बनती नहीं। इसलिए मेरा एसकेएमसीएच को भी दंडवत प्रणाम! उसकी इमरजेंसी को प्रणाम, जो खुद इमरजेंसी में भर्ती होने योग्य है! उसके वार्डो को प्रणाम, जो भूतपूर्व मरीजों की रूहों को भी पनाह देते हैं। प्रणाम तो उस धाम को भी करने को जी चाहता है, जहां आदमी चार कंधों पर सवार होकर अपनी अंतिम यात्रा पर जाता है लेकिन इतनी जल्दी नहीं। फिलहाल चलते- चलते एक किस्सा सुन लीजिये-
और अंत में..
पिछले माह नारद मुनि को रास्ते में यमराज मिल गये। उनके साथ आत्माओं से भरी एक गठरी थी। ये देख मुनिवर ने यमराज से पूछा- 'नारायण! नारायण! महाराज इतनी सारी आत्माओं को एक साथ लेकर जा रहे हैं.. यमलोक में सब ठीकठाक तो है न!'
'ऐसी कोई बात नहीं है मुनिवर, दरअसल मार्च का प्रेशर है.. टारगेट पूरा करना है न।' यमराज ने जवाब दिया।
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