इधर कुछ समय से देश में एक नयी तरह की संस्कृति की लहर आयी हुई है। इसका नाम है- 'न नहाने की संस्कृति' इसलिए समाज में भी दो वर्ग हो गये हैं। एक वे. जो नहाते हैं और दूसरे वे जो नहीं नहाते हैं। 'नहाने' की आदिम परंपरा को मानने वालों का कहना है कि जब तक नल के नीचे बैठकर दो- चार ड्रम पानी न बहा लिया जाये, तब तक शरीर सूखा रहता है. आत्मा सूखी रहती है और सूखी आत्मा का परमात्मा में विलय अर्थात मिलन नहीं हो सकता।जबकि 'न नहाने' के पक्षधरों को न लोटे से मतलब है और न साबुन से। 'नहाना' इनकी नजर में सती जैसी कुप्रथा है, जिसका अंत शीघ्रातिशीघ्र हो जाना चाहिए। इनका मानना है कि आत्मा तो अजर-अमर है। उसे न कोई मार सकता है, न काट सकता है। न सुखा सकता है, न गीला कर सकता है. फिर उस पर नहाने या न नहाने का क्या असर!मेरे एक मित्र हैं। विद्धान नहीं हैं। शायद इसीलिए मित्र है। हर विषय पर बहस कर सकते हैं। खुद को इस संस्कृति का जनक समझते हैं। इनका दावा है कि केवल पैदा होने के बाद नहाये थे। वो भी लेबर रूम में क्योंकि वहां डॉक्टरों और नर्सो पर वश नहीं चल सका। बाद में जैसे बस चलता गया. पानी से दूर होते गये। और, आज ईश्वर की कृपा से उनके घर मे बाथरूम को छोड़कर सब कुछ है।एक दिन मुझे मिले और लिस्ट जैसी कोई चीज दिखाते हुए बोले- 'ये देखो. मैंने न नहाने की वालों की एक राष्ट्रीय समिति बनायी है। जिसके एक माह में ही पांच सौ मेंबर बन गये हैं।'मैंने उत्सुकतावश उनकी लिस्ट देखी। जिस समिति को वो राष्ट्रीय स्तर का बता रहे थे। उसमें अधिकांश नाम जिला स्तर के ही थे। फिर भी उनमें कई डॉक्टरों, इंजीनियरों, वकीलों, साहित्यकारों, पत्रकारों, शिक्षकों आदि के नाम देखकर आंदोलन की सफलता के प्रति मैं आश्वस्त हो गया।'तुम्हारा नाम भी इसमें लिख लूं?'उन्होंने अचानक पूछा तो मैं घबरा गया। हकलाते हुए कहा- 'मुझे माफ करो भाई। बीवी-बच्चों वाला आदमी हूं। कभी-कभी नहाना पड़ ही जाता है और झूठ बोलकर मैं समिति का सदस्य नहीं बनना चाहता।''समझ गया तुम लोगों की औकात। किसी अच्छे काम में साथ नहीं दे सकते। पता नहीं नहा-नहा कर कौन सा नोबेल पुरस्कार जीत लोगे।'उनका रौद्र रूप देखकर कुछ देर के लिए तो मैं सहम गया। लेकिन थोड़ी ही देर में सामान्य हो गया। वजह यह है कि मित्रवर का रौद्र रूप बस उतनी ही देर तक ठहरता है, जब तक खुद उनकी सेहत के लिए खतरा न बन जाये। इसलिए वह ये रूप हर किसी को नहीं दिखाते। पुलिस, डॉक्टर, ठेकेदार, गली के गुंडे, गली के कुत्ते, पत्नी (चाहे अपनी हो या पड़ोसी या परिचित की) जैसे लोग उनकी उस लिस्ट में शामिल हैं, जिनको वे सपने में भी रौद्र रूप दिखाने की कल्पना नहीं कर सकते।
खैर, उनके किसी रूप की परवाह न करते हुए मैंने पूछा- 'ये जो तुमने न नहाने वालों की समिति बनायी है, उसके पीछे कोई पीएचडी करने की मंशा है?'
'क्यों पीएचडी के बिना क्या कोई शोध नहीं किया जा सकता।' उन्होंने पलटकर जवाबी सवाल दागा।
'नहीं सो तो इस देश में बिना शोध के भी लोग पीएचडी कर लेते हैं लेकिन मैं यह जानना चाहता था कि तुम लोगों के नहाने के पीछे क्यों पड़े हो?'
'मेरी बातें तुम्हें अभी समझ में नहीं आयेंगी। जैसे ईसामसीह की बातें भी लोगों को उस वक्त पल्ले नहीं पड़ी थीं।' कहकर उन्होंने जोरों से खंखारा लेकिन इस डर से थूका नहीं कि कहीं बेचारी जमीन गीली न हो जाये.. और वापस पी गये।
मैं उनकी मितव्ययता को अभी दाद दे ही रहा था कि वह अचानक बोले- 'अच्छा बड़े नहाऊ बनते हो तो एक बात बताओ.. दुनिया में सबसे पहले नहाने वाला व्यक्ति कौन था?'
इस प्रश्न से मैं बीट हो गया। हकलाते हुए कहा- 'आदम और हव्वा के बारे में मैंने पढ़ा जरूर है लेकिन ये जिक्र कहीं नहीं आया कि वे नहाते थे।'
यह सुनते ही वह खुशी से उछलकर बोले- 'यही तो मैं कहता हूं कि जब आदम और हव्वा नहीं नहाये तो हम क्यों नहायें। यानी नहाना हमारी संस्कृति में कभी रहा ही नहीं। ये सब शैंपू- साबुन बनाने वाली कंपनियों का प्रोपोगंडा है।'
उनकी बात में वजन था लेकिन अपनी संस्कृति को स्नान विहीन मान लेने का दुस्साहस मैं नहीं कर पा रहा था। फिर भी पीछे नहीं हटा। बोला- 'माई डियर, ये बताओ कि सबसे पहले नहाने वाला जो भी रहा हो लेकिन क्या वो अब तक तुम्हारे लिए जिंदा बैठा होगा?'
'वो तो मर ही जायेगा..' वह खुशी से चीखे- '.. और ये जितने नहा रहे हैं.. सब मरेंगे।'
कहते हुए वे अपनी तशरीफ का टोकरा वहां से उठा ले गये। मैंने सोचा मुसीबत टली। किन्तु यह महज खुशफहमी थी। अगले ही दिन उनकी समिति के प्रथम राष्ट्रीय अधिवेशन का निमंत्रण पत्र मिला। मैं सदस्य तो नहीं था लेकिन रोज नहाता भी नहीं था इसलिए चला गया।
अधिवेशन स्थल पर कड़ी सर्तकता बरती जा रही थी। कोई नहाया- धोया परिंदा भी वहां पर नहीं मार सकता था। वॉलंटियर पहले आगंतुक को सूंघते और यदि कोई दुर्गन्ध विहीन व्यक्ति हाथ लग जाता तो उसे अपमान सहित लौटा दिया जाता। मैं सौभाग्यशाली रहा कि उस दिन नहाये होने के बावजूद बास मार रहा था इसलिए आसानी से घुस गया।
प्रेक्षागार के भीतर भी व्यवस्था बहुत उत्तम थी। पूरा सभागार वातानुकूलित था ताकि कोई पसीने तक से न भीग सके। नदी, तालाब, सागर, कुंआ, पोखर, बिसलरी, छाता, रेनकोट, बर्फ, भाप आदि ऐसी सारी चीजों का जिक्र वर्जित था, जिनका पानी से दूर- दूर तक भी संबंध हो। पूरा हॉल खचाखच भरा हुआ था। अनेक लोग पूर्व परिचित थे और एक- दूसरे को देखकर मुस्कुरा रहे थे। मानो कह रहे हैं.. अच्छा तो आप भी नहीं नहाते हैं। वहीं कुछ लोग अपनी कलई खुल जाने के डर से इधर- उधर बगलें झांक रहे थे। कायदे से उन्हें चुल्लू भर पानी की दरकार थी लेकिन समिति की आचार संहिता के तहत वहां पानी किसी भी मात्रा या रूप में स्वीकार्य नहीं था।
खैर, कार्यक्रम प्रारंभ हुआ। मित्रवर ने समिति के उद्देश्यों के बारे में बताने के बाद मुख्य अतिथि को माइक पर आमंत्रित किया। उनका भाषण इस प्रकार था-
प्रिय स्नान के शत्रुओं, मेरे मित्रों!
मुझे ये देखकर अपार हर्ष हो रहा है कि इस सभागार में कितने सारे लोग बिना नहाये बैठे हैं। मैं आज तक ये नहीं समझ सका कि अपने देश में नहाने पर इतना जोर क्यों दिया जाता है। माना कि दुनिया का तीन चौथाई हिस्सा पानी है और अपना देश भी तीन तरफ से पानी से घिरा हुआ है। लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि नहा ही लिया जाये।
कितने ही उपयोग हैं पानी के। चाय बनाइये। लस्सी बनाइये। दूध में मिलाइये, दारू में मिलाइये। जल संस्थानों में भिजवाइये। लेकिन बड़े अफसोस की बात है कि अपने देश में शादी का मतलब बच्चे और पानी का मतलब केवल नहाना समझा जाता है। ये सब उस जमाने की बातें हैं, जब आदमी के पास कोई काम नहीं होता था। वह नहाता था और बच्चे पैदा करता था। लेकिन आज.. कितने काम हैं, कितनी चुनौतियां हैं हमारे सामने। पाकिस्तान है, तालिबान है, नक्सली हैं, कश्मीरी उग्रवादी हैं, देसी बदमाश हैं, गरीबी है, योजनाएं हैं, चुनाव हैं, बाढ़ है, सूखा है.. और भी पता नहीं क्या- क्या है।
सोचिये कितने कठिन दौर से गुजर रहे हैं हम। हर लम्हा दहशत और फिक्र में गुजरता है। पता नहीं चलता कौन मानव बम है कि दुश्मन बम। ऐसे दौर में नहाने की बात तक सोचना पाप है। गद्दारी है देश के साथ। एक ओर लाखों- करोड़ों लोगों को पीने का पानी तक नहीं मिल पाता और दूसरी ओर करोड़ों गैलन पानी नहाने में बर्बाद कर दिया जाता है। ये राष्ट्रीय नुकसान नहीं तो क्या है। खासकर ऐसे दौर में जब लोगों की आंखों तक का पानी मर गया हो।
मुझे खबर मिली है कि इतना सब होने के बाद भी कुछ लोग सुबह- शाम दोनों टाइम नहाते हैं। आप ही बताइये.. क्या ऐसे लोगों को समाज में रहने का हक है। कतई नहीं। इसलिए मेरे साथ आप भी कसम खाइये कि इस संस्कृति को आगे बढ़ाने में आप अपने तन-मन-धन से योगदान देंगे। अपने आसपास नजर रखेंगे कि कोई चोरी- छिपे नहा तो नहीं रहा। और यदि कोई दिख जाये तो उसे नल के नीचे से खींच लायेंगे। मारेंगे, पीटेंगे, गोबर, मिट्टी, कीचड़ आदि से उके अलंकृत करेंगे लेकिन किसी भी कीमत पर उसे दोबारा नल के नीचे बैठने नहीं देंगे। याद रखें जब तक पूरा समाज इस एजेंडे को स्वीकृति नहीं दे देता, तब तक जल की राष्ट्रीय समस्या का समाधान नहीं हो सकता। जय हिन्द!
Saturday, March 13, 2010
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nice post
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