Saturday, March 13, 2010
मेरे बारे में
अपने बारे में जीते जी लिखना वैसे ही है जैसे कोई अपनी ही प्रतिमा का अनावरण करे। लेकिन लिखना इसलिए जरूरी है कि बाद में पता नहीं कोई लिखे या न लिखे। इसके अलावा आने वाला समय रोबोटों का होगा। ऐसे संकेत दिखने लगे हैं। रोबोट तो रोबोट ही है। हो सकता है कि भविष्य में जीवनियां लिखने का काम भी रोबोटों के हवाले हो जाए तो? रोबोट मशीन है। ऐसी मशीन जो कम्प्यूटरीकृत होती है। मशीन में गड़बड़ी भी आ जाती है। सोचिए ऐसी सूरत में क्या होगा-रोबोट को कमल किशोर सक्सेना की जीवनी लिखनी है। उसमें सारे संबंधित डाटा फीड कर दिए गए। माउस क्लिक किया और ऐन उसी वक्त कम्प्यूटर हैंग कर गया। हैंगोवर से जब वो वापस लौटा तो अपने साथ वायरस के कारण ओसामा बिन लादेन के डाटा भी ले आया। और, उसने वे भी कमल जी की जीवनी में मिला दिए। अब आप ही बताइए ऐसी जीवनी मार्केट में न ही जाए तो अच्छा। इन्हीं चंद शुबहों के कारण मैं अपने बारे में खुद लिखने का फैसला किया। खैर!मेरी जीवनी कोई ऐसी नहीं है जिसे पढ़कर कोई गांधी, नेहरू या ओबामा बन जाए। अरे, जब मैं खुद नहीं बन सका तो दूसरा क्या खाक बनेगा। कम से कम मेरी जीवनी पढ़कर तो नहीं। मेरा विचार है कि यदि महापुरुष लोग जीते जी अपनी जीवनी पढ़ लेते तो शायद वे भी वे न बन पाते जो मरने के बाद जीवनी लिख जाने से बन गए। एक बात और! अपने बारे में सच-सच लिखना वाकई साहस का काम है। यह मुझे महसूस हो रहा है। हालांकि, जीवनी लेखन के मामले में सच का कितने प्रतिशत सहारा लिया जाता है, इस पर अच्छी खासी डिबेट हो सकती है। हो सकता है कि कुछ लोग महापुरुष की श्रेणी से निकलकर डायरेक्ट औंधे मुंह मैनहोल में नजर आएं। (क्रमश:)
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