Monday, April 12, 2010

मरने के बाद

मुझे एक झटका सा लगा। महसूस हुआ कि मैं जमीन छोड़ चुका हूं। बिल्कुल उसी तरह जिस तरह हवाई यात्रा में महसूस होता है। जमीन छोड़ने और इस अहसास को महसूस करने के दरम्यान मैंने अच्छी भली ऊंचाई पकड़ ली। जैसे हवा का अनुकूल रुख होने पर पतंग खुद-ब-खुद अपनी ऊंचाई तलाश लेती है।
तभी दूसरा झटका लगा। ये देखकर कि मेरा शरीर गायब था। हैरत हुई कि जिस जिस्म को तेल, पानी, शैंपू और जूं देकर इतने बरसों तक पाला पोसा, वह अचानक दगा दे गया। मेरी हालत अजीब सी होनी शुरू होती। इसी बीच मुझे एक और अपने जैसा दिखा। वह मेरी ही ओर आ रहा था। पास आकर बोला- 'बधाई हो! आखिर तुम मर ही गये।'
अपने मरने का जिक्र सुनकर मैं चौंका। तो ये बात है। इसीलिए मेरा पांच फुट बाई तीस सेंटीमीटर का शरीर नदारद है। अब मैंने उसे ध्यान से देखा। वह भी मेरी ही तरह था यानी मरा हुआ। इसका मतलब! आगे कुछ मैं सोच पाता, उसके पहले ही वह बोला- 'पता है, तुम्हारे साथ मैं भी पुलिस की गोली से घायल हुआ था। और, तुम्हारे साथ ही सरकारी अस्पताल में भर्ती भी हुआ। वहां पता नहीं क्या हुआ। डॉक्टर तुम्हें ऑपरेशन थियेटर में ले गये। मैं बेहोश हो गया। होश आया तो तुम्हारे बेड पर ढाई- ढाई फुट के दो मरीज पड़े थे। मैं इसे डॉक्टरों का चमत्कार समझ रहा था। लेकिन तुम्हें यहां देखकर मेरा मतलब मरा हुआ देखकर मेरी सारी चिंताएं दूर हो गयीं।'
किसी के मरने पर खुश होना और बात है लेकिन अपने मरने की खुशी दूसरे को मनाते देखना.. भगवान ये दिन किसी को न दिखाये। लेकिन उसे मेरी भावनाओं से कोई मतलब नहीं था। शायद वह बेवकूफ समझ रहा था कि आदमी के मरने के बाद उसकी भावनाएं भी मर जाती हैं। सच कहा है कि कुछ लोगों को मरने के बाद भी अक्ल नहीं आती। वह उसी श्रेणी में था। मुझे गुमसुम देखकर उसे होश आया और मेरे मरने की खुाशी में गा रहे मंगल गीतों को उसने विराम लगाया।
'क्या हुआ बिरादर?' उसने सहानुभूति से पूछा।
'कुछ नहीं यार। विश्वास नहीं हो रहा कि मैं मर चुका हूं।' मैंने सच्चाई बता दी।
'होता है यार.. होता है। पहली-पहली बार मरने में ऐसा ही होता है।' उसने इस आत्मविश्वास से जवाब दिया जैसे उसे कई बार मरने का तर्जुबा हो।
'.. जानते हो', वह आगे बाला- 'अस्पताल में मेरे सामने के बेड वाला मरीज तो पोस्टमार्टम में पहुंचने के बाद भी नहीं मान रहा था कि वह मर चुका है। बाद में इलाके के दरोगा जी ने जाकर हड़का तब साला मरने को तैयार हुआ।'
मुझे लगा कि छोटी सी मृत्योपरांत आयु में भी उसने मरने के मामले में काफी रिसर्च कर डाली है। अब मुझे उसमें दिलचस्पी जाग उठी। वैसे भी उस इलाके में, जहां कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था.. उसके सहारे टाइम पास किया जा सकता था। ये सोच मैंने उससे मित्रवत पूछा- 'मरने के पहले जब तुम जिंदा थे, मेरा मतलब धरती पर तुम क्या करते थे?'
'नौकरी की तलाश।' उसने सपाट सा जवाब दिया।
'यानी कुछ नहीं करते थे।'
'कहा न कि नौकरी की तलाश करता था। घर में सबसे बड़ा था। पिताजी इसी इंतजार में रिटायर हो गये कि बुढ़ापे में उनका सहारा बनूंगा। अपने चार छोटे भाई- बहनों को पैरों पर खड़ा करूंगा। कैंसर पीडि़त मां का इलाज कराऊंगा.. लेकिन कुछ न करा सका तो जानबूझकर उस भीड़ में घुस गया, जिस पर पुलिस गोली चला रही थी। और, मेरी मुराद पूरी हो गयी। पिता को निकम्मे बेटे से छुटकारा मिल गया।'
उसकी बात सुनकर इच्छा हुई कि मेरी आंखें भर आयें लेकिन आंखें थी ही नहीं। मुझे लगा कि वह उतना बेवकूफ नहीं है, जितना मैं माने बैठा हूं।
अचानक वह बोला- 'चलो श्मशान घाट चलते हैं। वहां अपना अंतिम संस्कार हो रहा होगा।'
अपना अंतिम संस्कार होते देखना। यह विचार भी कमाल का था। यहां तो साक्षात होने जा रहा था। सच्चाई यह थी कि हम मर चुके थे और अब अंतिम संस्कार ही देख सकते थे। शादी-ब्याह या किसी पार्टी में तो कोई बुलाने से रहा। मैंने मौन स्वीकृति दे दी और थोड़ी ही देर में हम दोनों श्मशान घाट आ गये।
मजे की भीड़ थी वहां भी। हालांकि शहर में कोई दंगा या बलवा भी नहीं हुआ था और सरकारी दस्तावेजों के मुताबिक न ही किसी महामारी का हमला। फिर भी श्मशान गुलजार था। वहां मजे की चिल्ल-पों मची हुई थी। मुर्दा से ज्यादा शोर भावी मुर्दे मतलब कंधा देने वाले मचा रहे थे। (क्रमश:)

3 comments:

  1. अच्छी प्रस्तुति। बधाई। ब्लॉगजगत में स्वागत।

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  2. शुभ कामनाएं।

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  3. शुभकामनाएं।

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