Monday, April 19, 2010

हाय आलू! हाय भंटा! हाय परवल! हाय मूली!

पहले ऐसा माना जाता था कि सब्जी खाना स्वास्थ्यवर्धक होता है लेकिन आजकल ऐसा महसूस हो रहा है कि सब्जी खाना समृद्धता की निशानी है। पिछले दिनों मैं गल्ती से सब्जीमंडी चला गया। वहां सब्जियों के भाव सुनकर गश आते- आते बचा। आलू से लेकर पिद्दी भर का कद्दू तक ऐंठा बैठा था.. जैसे शेयर मार्केट का सारा कारोबार इन्हीं के भरोसे है। दलाल स्ट्रीट में बैठे दलालों पर अफसोस भी हुआ। आज तक एक भी सब्जी को लिस्टेड क्यों नहीं किया गया। शायद लोग भूल गये कि मामूली सा प्याज तक इस देश की सरकार बदल चुका है। खैर!
ऐसा नहीं है कि मेरे परिवार में सब्जी खाने का रिवाज नहीं है। सो तो जानने वाले जानते हैं कि मैं खाते-पीते, पहनते-ओढ़ते खानदान को बिलांग करता हूं। इतिहास गवाह है कि प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के समय भी मेरे पूर्वजों ने अंग्रेजों से ज्यादा विरोध उड़द की दाल और जिमिकंद की सब्जी का किया था। क्योंकि, दोनों चीजें कब्जावर हैं। गैस बहुत बनाती हैं। गैस्ट्रिक के मरीज जानते हैं कि गैस कितनी लज्जाहीन परेशानी है। खुद को भी परेशान करती है और बगल में बैठे व्यक्ति को भी। मेरे विचार से दुनिया में संभवत: गैस ही ऐसी एकमात्र बीमारी है, जो मरीज के साथ उसके तीमारदारों और वातवरण को भी प्रभावित करती है।
बहरहाल मेरे खानदान में सब्जी खाने का इतिहास काफी पुराना है.. पाषाणकालीन सभ्यता से भी पुराना। प्रमाण यह कि मैं तकरीबन सारी सब्जियां पहचानता हूं। मगर इधर पता नहीं कौन सा शनि मेरे मंगल में प्रवेश कर गया कि अमंगल ही अमंगल हो गया। सब्जियां खाना तो दूर, इधर मैं उन्हें देखने तक को तरस गया हूं। पिछले हफ्ते मैंने डरते- डरते अपनी शरीक-ए-हयात से पूछा- 'क्यों जी! आजकल क्या कोई ऐसा व्रत चल रहा है, जिसमें सब्जी खाना मना होता है। सच पूरे पंद्रह दिन हो गये.. मैंने निनुआ का छिल्का तक नहीं देखा।'
बस मेरा यह कहना था कि वह सड़े हुए कुम्हड़े जैसी फट पड़ीं- 'दिमाग सटक गया है या स्पीडी ट्रायल के चक्कर में जल्दी सठिया गये हो। चले हो प्रिंस आफ वेल्स बनने। कुछ पता भी है। सब्जियों में आग लगी हुई है। फायर ब्रिगेड वाले शहरों, कस्बों की ही आगें बुझाने में हांफ रहे हैं.. यहां तो भगवान भी मालिक बनने को तैयार नहीं।' ये सुनकर मेरे अंर्तमन ने मुझे कांपने की आज्ञा दी लेकिन बिना वास्तविकता जांचे कांपना मेरे सिद्धांतों के खिलाफ था। इसलिए तुरंत झोला उठाया और चला आया सब्जीमंडी। अब आगे की कथा जरा दिल थामकर।
पूरी मंडी में एक अलग किस्म की दहशत व्याप्त थी। हर सब्जी के आगे टैग लगा हुआ था, जिस पर उसका मूल्य अंकित था। बस हाल मार्क की कमी थी वरना सब्जियों और सोने के तेवरों में कोई फर्क नहीं था। ग्राहक सहमे हुए थे। दिल के मरीजों की हालत कुछ ज्यादा ही खराब थी। पता नहीं किस सब्जी का भाव सुनकर दौरा पड़ जाये।
कटहल, मटर, मशरूम और शिमला मिर्च जैसी चीजें ब्लैक कैट कमांडो की कड़ी सुरक्षा में थीं। इन्हें छूना तो दरकिनार देखना भी आसान न था। उसके लिये सचिवालय से पास बनवाना पड़ता था। मंडी में रह- रहकर सूचना प्रसारित की जा रही थी कि आफ सीजन सब्जी खरीदने लोगों के लिए पैन संख्या का उल्लेख करना आवश्यक है।
मैंने एक दुकानदार से डरते- डरते आलू का भाव पूछा। उसने ऐसे घूरा जैसे तसल्ली कर लेना चाहता हो कि औकात भी है आलू खरीदने की या खामखां टाइम खोटी करने चले आए। फिर कुछ सोचकर बोला- 'एक रुपए जोड़ा!' दाम सुनकर अपनी शरीक-ए-हयात का चेहरा याद आ गया, जिसके खाली हाथ लौटने पर और सुर्ख हो जाने का पूरा- पूरा खतरा था।
हिम्मत करके आगे पूछा- 'और भय्या.. भंटा क्या भाव?'
'पचास पैसे प्रति वर्ग इंच!'
'यार भंटा बेच रहे हो या अपार्टमेंट।' मैंने कह तो दिया लेकिन इससे पहले कि दुकानदार वीर रस में प्रवेश करे, आगे बढ़ गया।
अगले दुकानदार से कुछ कहने की जरूरत न पड़ी। उसे शायद लगा कि मैं सूचना कार्यालय से सूचना पाने के अधिकार के तहत सूचनाधिकारी की स्वीकृति लेकर उसे सूचित करने आ रहा हूं। इसलिए पास पहुंचते ही बिना कामा- फुल स्टॉप के चालू हो गया-
'ध्यान से नोट कर लीजिये। मैं एक बार में ही सारी सब्जियों के भाव बता देता हूं.. मूली दो रुपए प्रति सेंटीमीटर, परवल का छिल्का चार रुपए पाव, हरी धनिया एक रुपए की चार पत्ती, मिर्च एक रुपए जोड़ा, टमाटर, कुंदरू और भिंडी दो रुपए में दो मिनट दिखाये जाएंगे। अंडरस्टैंड.. हिंदी में कुछ समझे। अब आगे बढि़ये.. चलिये, दुकान के सीधे प्रसारण का समय हो रहा है। चैनल वाले आते ही होंगे।'
इसके बाद के शब्द मैं नहीं सुन सका और मंडी के बाहर निकल आया। बाहर जानवरों का हरा-हरा चार बिक रहा था। मन में एक स्वाभाविक उत्कंठा हुई कि जब जानवर मनुष्य का भोजन कर सकते हैं तो मनुष्य उनका क्यों नहीं। सिद्ध भी हो चुका है कि चारा कतई नुकसानदायक चीज नहीं है। उसे मनुष्य आसानी से पचा सकता है। वैसे भी आकार-प्रकार को अगर छोड़ दिया जाए तो सब्जियों और चारे की हरियाली में कोई फर्क नहीं होता।
चारा बेचने वाला मेरी ओर बड़ी हसरत से देख रहा था। पता नहीं हालत पर उसे रहम आ रहा था या वह बेवकूफ समझ रहा था कि घर में गाय-घोड़े बंधे होंगे। एक पल मैं चारे के सामने ठिठका फिर पूछा- 'ये क्या भाव है?'
दोस्तों! जवाब में दुकानदार केवल मुस्कुराया। हालांकि वह कह सकता था कि भाव जानकर क्या करोगे। आप तो ये बताओ.. यहीं खाओगे या घर ले जाओगे। लेकिन उसकी मुस्कुराहट में जो शब्द छिपे थे अगर वे आकार पाते तो शायद ये होते- मंहगाई कोसने की नहीं सोचने की चीज है। आखिर क्यों हर चीज का दाम आसमान छू रहा है। वजह साफ है। मांग ज्यादा, उत्पादन कम। ऊपर से प्राकृतिक आपदाएं। प्रदूषित पर्यावरण। इसलिए असंतुलन है। देखते जाइये.. अगर अब भी नहीं चेते तो एक दिन आप वाकई चारे का भाव पूछते नजर आएंगे।
और अंत में..
मुरारी के फ्रिज में शराब की खाली बोतलें देखकर उनके दोस्त ने पूछा- 'ये खाली बोतलों का क्या मतलब है?'
'ये मेरे उन मेहमानों के लिए हैं, जो नहीं पीते।' जवाब मिला।

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