Saturday, April 10, 2010

मुजफ्फरपुर सीमा प्रारंभ, सड़क समाप्त

प्रणाम इस शहर को, जो इतने सारे और तरह- तरह के गढ्डों के बीच रहकर भी जिंदा है! प्रणाम नगर निगम को, जिसके तमाम प्रयासों के बावजूद शहर का कोई न कोई कोना साफ दिख ही जाता है! प्रणाम निगम के कर्मचारियों को, जिनके सतत प्रयत्‍‌नों से शहर हमेशा कूड़े के ढेर पर बैठा रहता है। जैसे पर्यावरणविदों को चुनौती दे रहा हो- 'जो करना हो कर लो, हम बारह साल क्या चौरासी साल बाद भी घूरे के घेरे ही रहेंगे।' प्रणाम यहां के आवारा पशुओं को, जिनको यातायात नियमों की जानकारी हो न हो लेकिन इतना अवश्य जानते हैं कि उनके किस ऐंगल से बैठने से सड़क पर जाम लग सकता है!
अगला प्रणाम यहां के पुलिसजनों को! जिनकी वर्दी देखकर कुत्ते मुंह फेर लेते हैं, इसलिए कि इन्फेक्शन न हो जाये। यूं तो शहर में कौवे दिखते नहीं लेकिन अगर सौभाग्य से दिख जाते हैं तो पुलिस को देखकर चहचहाने लगते हैं! बकरों की मम्मियां खैर मनाने लगती है और मुर्गो की टांगें फड़फड़ाने लगती हैं! मछलियां विचारने लगती हैं कि उनके एक के बजाय दो मूड़े क्यों न हुए!
सम्मानित अपराधियों, गली के श्रद्धेय गुंडों, चौराहों के प्रात: स्मरणीय बदमाशों, कम्प्यूटर और नेट के युग में भी लड़कियों को देखकर सीटी बजाने वाली प्राचीन प्रथा पर यकीन करने वाले मजनुओं, मिलावट को व्यापार का धर्म और हाथी की लीद को मसाले का मर्म मानने वाले निष्ठावान व्यापारियों को भी मेरा सादर प्रणाम!
अब आगे की कथा जरा दिल थामकर पढ़ें-
दाद, खाज, खुजली, अकौता, भगंदर, नासूर, बवासीर, कांच, पेट का दर्द, पीठ का दर्द, पुट्ठे का दर्द, अम्लबाई का दर्द, हैजा, कालरा, डायरिया, रात में नींद नहीं आती हो, दिन में खट्टी डकारें आती हों, रात में मीठी हवा निकलती हो, पेट लगातार कुश्ती लड़ता रहता हो या अजीब- अजीब आवाजें करता हो, आंखों में खराबी हो, दूर की चीजें साफ नजर न आती हों, पास की चीजें बिल्कुल न दिखती हों, पैरों में ऐंठन रहती हो, हाथ कंपकंपाते हों, फालिज का खतरा हो, किडनी प्राब्लम हो, डायबिटीज, कैंसर, हेपेटाइटिस, इन्सेफलाइटिस, कंजक्टिवाइटिस, पुराना दमा हो या नया एचआईवी, फेफड़ों में पानी भर गया हो या आंखों का सूख गया हो, कान में आवाज की जगह केवल हवा आती- जाती हो, या ऐसी ही कोई बीमारी यदि आपको अभी तक नहीं हुई है तो चिंता की कोई बात नहीं है। इस शहर में हर बीमारी का जबर्दस्त इस्कोप है। यकीन न हो तो जूरन छपरा जाकर देख लीजिये। ये अंदाज लगाना मुश्किल है कि शहर में डॉक्टर ज्यादा हैं या मरीज! किसी भी डॉक्टर से संपर्क कीजिये।
डॉक्टर साहब न सिर्फ आपकी बीमारी का इलाज करेंगे, बल्कि ये भी बतायेंगे कि वे किस बीमारी का इलाज कर रहे हैं। वरना कुछ डॉक्टर तो मरीज के क्लीनिक में घुसते ही उसका इलाज शुरू कर देते हैं। बाद में पता चलता है कि जल्दी में जिसे इंजेक्शन दिया गया, वह मरीज नहीं उसका अटेंडेंट था। दूसरे शहरों की तरह जांच रिपोर्ट देखने के बाद ही यहां भी बीमारी बताने की प्रथा है। फिर भी समझदार मरीज जांच रिपोर्ट पर ज्यादा विश्वास नहीं करते। बस खुद को डॉक्टर के हवाले कर देते हैं। मरीज बीमार होकर अपना धर्म निबाहते हैं और डॉक्टर इलाज करके अपना। पैथालॉजी वाले रिपोर्ट देकर अपना। रिपोर्ट कभी- कभी गलत भी निकल जाती है। लेकिन उससे आपकी बीमारी गलत नहीं हो जाती। वह हर हाल में वही रहती है, जो लेकर आप डॉक्टर के पास गये थे।
जिक्र होता है जब कयामत का, तेरे जलवों की बात होती है। अर्थात डॉक्टरों का जिक्र हो और अस्पताल की बात न हो तो बात बनती नहीं। इसलिए मेरा एसकेएमसीएच को भी दंडवत प्रणाम! उसकी इमरजेंसी को प्रणाम, जो खुद इमरजेंसी में भर्ती होने योग्य है! उसके वार्डो को प्रणाम, जो भूतपूर्व मरीजों की रूहों को भी पनाह देते हैं। प्रणाम तो उस धाम को भी करने को जी चाहता है, जहां आदमी चार कंधों पर सवार होकर अपनी अंतिम यात्रा पर जाता है लेकिन इतनी जल्दी नहीं। फिलहाल चलते- चलते एक किस्सा सुन लीजिये-

और अंत में..
पिछले माह नारद मुनि को रास्ते में यमराज मिल गये। उनके साथ आत्माओं से भरी एक गठरी थी। ये देख मुनिवर ने यमराज से पूछा- 'नारायण! नारायण! महाराज इतनी सारी आत्माओं को एक साथ लेकर जा रहे हैं.. यमलोक में सब ठीकठाक तो है न!'
'ऐसी कोई बात नहीं है मुनिवर, दरअसल मार्च का प्रेशर है.. टारगेट पूरा करना है न।' यमराज ने जवाब दिया।

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