Tuesday, April 6, 2021

हैप्पी बर्थडे टू मी

4 अप्रैल 1956, शाम 6 बजकर 60 मिनट और पता नहीं कितने सेकंड। राउंड फिगर में करीब 7 बजे का समय। ना आसमान में बिजली कौंधी, ना कोई आकाशवाणी हुई, ना बिल्ली हंसी - ना कुत्ता रोया लेकिन हम पैदा हो गए। अच्छा हुआ महान भविष्यवक्ता नास्त्रेदमस ने हमारे पैदा ना होने की भविष्यवाणी नहीं की थी, वरना कई अन्य की तरह वह भी ग़लत साबित हो जाती। हमारा पैदा होना कोई आश्चर्य ना था...आश्चर्य तो तब होता जब हम मंगल या शनि पर पैदा हुए होते। ख़ैर, जब हम पैदा हुए तो बेहद कमज़ोर, बल्कि कहना चाहिए कमज़ोरेस्ट थे। हमारे बचने की किसी को कोई उम्मीद नहीं थी। हालांकि, डॉक्टरों ने जवाब नहीं दिया था किंतु उनसे किसी ने सवाल भी नहीं किया था। मगर हम ना सिर्फ ज़िंदा रहे बल्कि लगातार ज़िंदा बने रहे। इतने सालों में हमने ज़िंदगी के साथ एक मिनट का भी नागा नहीं किया। ख़ैर, पैदाइश के समय हमारा वज़न इतना कम था कि हमें और सोने को एक ही बांट से तौला जा सकता था। हम साधारण आंखों से नहीं दिखते थे। कहते हैं पूत के पांव पालने में नज़र आ जाते हैं लेकिन हमारे माइक्रोस्कोप में नज़र आए। पहले सबने सोचा कि शायद केवल आत्मा की डिलीवरी हुई है। लेकिन जब डॉक्टरों ने बताया कि टोटल पंचतत्व यही हैं, तब हमारे पिता जी के पिता जी को विश्वास हुआ कि वह बाबा बन गए हैं। उन्होंने इस खुशी में मोहल्ले में बूंदी के दाने बांटे। पूरा लड्डू इसलिए नहीं दिया गया ताकि ख़ुशी और उसके कारण का संतुलन बना रहे। हमारा जन्म कानपुर के उर्सला अस्पताल में हुआ था। आज़ादी से पहले अस्पताल अंग्रेज़ों का था लेकिन अब सरकार का। मगर वहां पैदा होने वाले बच्चे सरकारी नहीं कहलाते थे। उस समय के सरकारी अस्पताल स्वस्थ हुआ करते थे। बच्चा बदलने की कला उस दौर में विकसित नहीं हो पाई थी। अस्पताल में डॉक्टर और दवाएं, दोनों का भरपूर स्टॉक रहता था। कोई भी वहां इस विश्वास के साथ इलाज करा सकता था कि उसका हाथ टूटा है तो प्लास्टर हाथ में ही लगेगा, पैर में नहीं। ऑपरेशन की कैंची ट्रे में ही रखी जाती थी, मरीज़ के पेट में नहीं। ऐसे सतयुगी वातावरण में जब हमारे जैसा अमानक ( मानकों के विपरीत ) बच्चा पैदा हुआ तो कुछ लोगों ने इसे भ्रष्टाचार की शुरुआत कहा। देश में भ्रष्टाचार और अपने आंगन में हम, दोनों तेज़ी से बढ़ने लगे। कुछ समय बाद भ्रष्टाचार की सेहत तो ठीक हो गई लेकिन हमारी डेढ़ पसलियां पौने दो ना हो पाईं। हमारी मां ने मालिश, खिलाई - पिलाई, दवा - दुआ, मंदिर, फ़कीर, आदि सारे जतन कर डाले मगर हमारी खाल और हड्डियों के बीच मांस नहीं उगा तो नहीं उगा। घर पर जो भी परिचित, नाते - रिश्तेदार आता, हमारे लिए कोई दवा या इलाज तजवीज़ कर जाता। मां - पिता जी किसी से मिलने जाते तो भी बातचीत का विषय हमारी सेहत, जो नहीं थी, ही रहता। हम सेहत बनाने की प्रयोगशाला बनकर रह गए थे। अच्छा हुआ कि किसी रसूख वाले के यहां नहीं जन्मे वरना तत्कालीन भारत में हमारी दुर्बलता भी राष्ट्रीय समस्या होती। कहते हैं मुसीबत कभी अकेले नहीं आती। हम केवल दुर्बलता में ही चैंपियन नहीं थे, रंग के मामले में भी उल्टे तवे से थोड़े ही उन्नीस थे। ' कोढ़ में खाज ' वाली कहावत के ' लिविंग लीजेंड ' बन गए हम। यही वजह थी कि नज़र से बचाने वाला काला टीका हमें नहीं लगाया जाता था, बल्कि जहां नज़र लगने का अंदेशा होता था, वहां हमें लगा दिया जाता था। उस समय गोरा बनाने के इतने क्रीम, लोशन आदि सौंदर्य प्रसाधन नहीं आते थे और ना ब्यूटी पार्लर होते थे। अपना रूप निखारने के लिए आदमी ले - देकर साबुन की बट्टी पर ही निर्भर करता था। उसमें भी ' लक्स ' फिल्म अभिनेत्रियों के लिए आरक्षित था और ' लाइफ ब्वॉय ' बड़े घर के कुत्तों के लिए। हमारे जैसे मीडियम क्लास लोग ' हमाम ' टाइप साबुन पर आश्रित रहते थे। हम उसी से नहाते रहे। सुबह - शाम नहाते रहे। दस साल तक नहाते रहे। तब जाकर भ्रम टूटा कि साबुन लगाने से कोई गोरा नहीं होता। इसके बाद हमारा दुनिया के सारे साबुनों से विश्वास उठ गया। सिद्धांतत: हमें आजीवन साबुन का प्रयोग ना करने की शपथ ले लेनी चाहिए थी किंतु इसमें एक खतरा था कि अंधेरे में जो थोड़ा - बहुत हमारा अहसास बना रहता है, वो भी खत्म हो जाता। अब तक हम इतने बड़े हो गए थे कि हमें हमारा आकार मिल चुका था। सिर्फ कलर को छोड़ दिया जाए तो सौंदर्य के सारे मानदंडों पर खरे उतरते थे। यथा : छरहरा बदन, बड़ी - बड़ी आंखें, सुतवां लंबी नाक, सुराहीदार गर्दन, घने - काले केश, पतली कमर... लेकिन जब इन सबका टोटल किया जाता तो बनते कमल किशोर सक्सेना। आज इसी टोटल की 65 वीं वर्षगांठ है। आमीन! - कमल किशोर सक्सेना

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